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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

19

यौवन-काल में विधुर हो जाने के बावजूद अमियवल्लभ ने दूसरी शादी नहीं की! एकमात्र कन्या शिशु मणिकुंतला को पाल-पोस कर योग्य बनाना ही उनका उद्देश्य था। पिता-पुत्री और बहुत सारे दास-दासी यही था घर-संसार का चेहरा। लड़की की शादी होने के बाद कुछेक दास-दासी हट गए हैं, सिर्फ दो-तीन आदमी रखकर काम चला रहे हैं। इसी प्रकार अमियवल्लभ संगीहीन हो गए हैं लेकिन यह तो लगभग बत्तीस-तैंतीस साल पहले की बात है। लेकिन बेहद शौकीन, खानदानी मिजाज के, राजा खितावधारी यह व्यक्ति पूरे तौर पर आत्मप्रेमी है और उसी प्रेम में डूबा रहता है, उसे देखने से ही इसका पता चल जाता है।

यह सब होने के बावजूद जवानी के दिनों में क्या कट्टर शुकदेव के क्रय किए गए व्यक्ति की नाईं ही बैठे रहे हैं? रसिक आदमी हैं। तरह-तरह के रसों के प्रति अभिरुचि है। संगीत-वाद्य, गायिका नर्तकी, सुर-सुरा-सब-कुछ के प्रति आसक्ति।

मणिकुंतला यद्यपि एकमात्र संतान है, परन्तु उसके यहाँ जाने पर रात के वक्त वहाँ नहीं रुकते हैं। मणिकुंतला के साथ भी यही बात है। पिता के घर आकर ठहरना मणिकुंतला के नियम के परे है; अलबत्ता हर रोज एक बार पिता-पुत्री में वार्तालाप होता है।

आज भी, अभी तुरन्त वार्तालाप समाप्त हुआ है। टूटू के लेक टाउन के मकान का काम खत्म हो चुका है, यह समाचार जानकर प्रसन्नमन एक छोटा-सा सुरापात्र लिये बैठे हुए हैं। अवंती ने कमरे में प्रवेश किया। लेकिन हाँ, हड़बड़ी के साथ नहीं, 'आ सकती हूँ?' कहकर।

अमियवल्लभ ने हाथ के पात्र को छिपाया नहीं, हाथ में थामे ही अतिशय उत्साह के साथ बोल उठे, ''अरे, आओ-आओ, रानी साहिबा।''

अवंती आकर बैठ जाती है (प्रणाम पसन्द नहीं करते अमिय वल्लभ) और हँसकर कहती है, ''असमय आ गई हूँ?''

अमियवल्लभ बोले, ''छि:-छि:, रानी साहिबा! यह भी बात में कोई बात है? जब भी तुम्हारे चरणों की धूल यहाँ गिरेगी, वही सुसमय होगा। मगर एकाएक इस बन्दे को यह सौभाग्य क्यों प्राप्त हुआ?''

अवंती हाथ का बैग गोद पर रख चट से बोल पड़ी, ''अच्छा नानाजी, यह सौभाग्य यदि चिरस्थायी हो जाए तो? आप राजी हैं?''

अमियवल्लभ ने अब सुरा-पात्र को हाथ से नीचे उतार, पान की गिलौरी की तश्तरी के पास रख दिया, तनकर बैठते हुए बोले, ''क्या बात है, महारानी?''

''कह रही हूँ-मैं अगर आपके यहाँ रहना चाहूँ तो आप रहने दीजिएगा?''

''अरे, यह कितना भयानक प्रश्न है! कृतार्थ होने और स्वयं को धन्य समझने जैसी बात है। मगर...''

अमियवल्लभ तनिक और सीधे होकर बैठ गए। बोले, ''सच बात खोलकर बताओ न! मामला क्या है? उस बुद्धू गँवार से प्रणय- कलह? इसी वजह से उसे जरा टाइट करने की जिद्द? तुम यहाँ दो- दिन छिपकर बैठी रहोगी तो वह साला खोज-खोजकर परेशान हो उठेगा-यही इरादा है न?''

अमिय वल्लभ हो-हो कर हँस पड़े। गोराचेहरा टहटह लाल हो गया।

अवंती ने कहा, ''वह सब बचपना करने का शौक नहीं है, नानाजी। अब कोप-भवन का युग भी नहीं रहा। मान लीजिए, जितने दिनों तक किसी नौकरी का जुगाड़ न कर पाती हूँ, यहीं रह जाऊँगी। आपके शतरंज खेलने की संगिनी बनकर रहूँगी, कविता पढ़कर सुनाऊँगी।''

ये दो वस्तुएँ अमियवल्लभ को विशेष तौर पर प्रिय हैं। प्रसन्न होकर बोले, ''अहा हा! सुनकर बड़ा ही लोभ हो रहा है, महारानी। मगर कोहेनूर हीरा रख सकूँ ऐसी सामर्थ्य कहाँ है? जगह ही कहाँ है?''

''कोहनूर हीरा! फिजूल की बातें नहीं कीजिए। रखने की जगह की कमी है? आपके पास इतना बड़ा मकान है। सिर्फ एक ही आदमी रहता है।''

अमियवल्लभ ने मीठी मुसकान के साथ कहा, ''असुविधा इसी बात की है रानी साहिबा। मैं एक विधुर आदमी हूँ, घर-संसार में कोई दूसरा लड़का या लड़की नहीं है। और तुम एक खूबसूरत तरुणी हो...''*

(*बंगाल में नाना और नाती-नातिनी या नाना और दोहित्र वधू के बीच हँसी-मजाक चलता है।)

''नाना जी, आपकी उम्र कितनी हो चुकी है?'' अवंती ने ठनकती आवाज में कहा। अमियवल्लभ ने सिर झटकते हुए कहा, ''उम्र के बारे में मत पूछो, महारानी, मत पूछो। धोखा खा जाओगी।''  ''तो फिर आपको यंगमैन कहना होगा?''

''सो न भी कह सकती हो, मगर बूढ़ा मत कहो। यही तो इस तरह का एक लुभावना प्रस्ताव सुनकर छाती में सिहरन हो रही है। लेकिन प्रचेष्टा स्वीकार करने का साहस नहीं हो रहा है।

साहस नहीं है!

अवंती के लाल चेहरे पर अँधेरा पुत गया, ''उफ़ नाना जी! अब भी आपको लोकनिन्दा का भय होता है? छि:-छि:!''

अमिय वल्लभ पूरे तौर पर तनकर बैठ गए।

बोले, ''लोकनिन्दा? डोन्ट केअर। लोकनिन्दाका भय करते हैं पंसारी, मछुआरे और किरानी। राजा-रजवाड़े लोकनिन्दा से नहीं डरते। समझीं?''

''डरते नहीं हैं, लेकिन आप डर जो रहे हैं।''

अवंती के लहजे में व्यंग्य का पुट है।

अमियवल्लभ के लहजे में हताशा का पुट।

''में अपने आपसे ही डरती हूँ।''

''मतलब?''

अवंती दुबारा ठनकती आवाज में बोल उठती है।

''मतलब-क्या बताऊँ, महारानी। हर वक्त अपने वश में नहीं रहता हूँ। जब गुलाबी नशे से चूर हो जाता हूँ तो दुनिया रंगीन लगने लगती है, होश-हवास नहीं रहता। खूबसूरत युवतियों को देखते ही लगता है कि सभी बहिश्त की हूर और परियाँ हैं। सुनसान राजमहल में अपने करीब एक हूर-परी पर निगाह पड़े तो क्या से क्या कर बैठूँ, कौन जाने! हो सकता है आवेश में आकर कलेजे से लगा लूँ। हो सकता है पके सेव जैसे गाल पर अभद्र जैसा कुछ कर बैठूँ। अपने आप पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ।''

अवंती सोफे से उठकर खड़ी हो गयी और पके सेव जैसे लाल गाल को खिले गुलाब जैसा लाल बनाकर बोली, ''ओह! भगा देने का मतलब है इसीलिए यह सब भद्दी बातें बोल रहे हैं। लेकिन हाँ, मैंने सोचा था, आप और ही तरह के हैं। आप सचमुच ही मुझे प्यार करते हैं। मेरे लिए एक निरापद निश्चिन्तता के साथ रहने की जगह है।

अमियवल्लभ ने करुण स्वर में कहा, ''सचमुच ही प्यार करता हूँ, इसीलिए तो चिन्ता हो रही है। होश-हवास खोने की हालत में अगर कुछ रीति-विरुद्ध आचरण कर बैठूँ तो होश आने पर याद आते ही आत्महत्या करने के लिए रेल-लाइन के पास जाना होगा।...मैं इन्सान हूँ महारानी, सिर्फ बुरी लत का शिकार हो गया हूँ।''

अवंती ने ठनकती आवाज में कहा, ''अगर आप महसूस करते हैं कि बुरी लत है तो उसे छोड़ नहीं सकते?''

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