उपन्यास >> चैत की दोपहर में चैत की दोपहर मेंआशापूर्णा देवी
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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...
18
अरण्य से चेहरे पर धारदार हँसी उभर आती है। कहता है, ''ऊँचे तबके के लोग सोचते हैं, जिसको जो मर्जी हो कहने का हमें अधिकार है। कह, श्यामल, सही बात है न?''
लतिका इस तरह की बेसिर-पैर की बातों से बहुत डरती है। तुरन्त कहती है, ''थोड़ी-सी चाय बनाकर ले आऊँ आप लोगों के लिए?'
अवंती कहती है, ''न। कितनी! गरमी है! चाय-वाय नहीं चलेगी।''
अरण्य चट से कहता है, ''मैं पिऊगा। गरीबों को इतनी गरमी नहीं लगती। दूसरे के पैसे से जो कुछ मिल जाए, फायदा ही है।''
लेकिन आश्चर्य की बात है, जिस दिन आने पर अरण्य देखता है कि अवंती नहीं आयी है, या नहीं आयी थी, अरण्य कहता है, ''चाय रहने दो। बहुत बार पी चुका हूँ। चलता हूँ। जरा काम है।'' अवंती यह सब अपमान सहने के बावजूद क्यों आती है? यह भी तो एक रहस्य ही है। सचमुच क्या उस लतिका नामक बेवकूफ औरत से दीदी सुनने के लिए? यही व्याकुलता क्या अवंती को इस तरह के दुर्निवार बेग से खींचती है? लेकिन एक तरफ के धागे को खींचने से दूसरी तरफ का हिस्सा टूटेगा ही।
बूढ़ा सनातन कहता है, ''मैं नौकर-चाकर हूँ। कहना शोभा नहीं देता। फिर भी आपके भले के लिए ही कह रहा हूँ, 'आप दोस्त-मित्रों के यहाँ आना-जाना छोड़ दें, क्योंकि मुन्ना बाबू को यह सब तनिक भी नहीं सुहाता।''
अवंती गंभीर ही जाती है। कहती है, ''तुझसे यह बात किसने कही, सनातन-दा?''
''यह कैसे समझाया जा सकता है, भाभी जी? भले ही मूरख हूँ पर भगवान के द्बारा दी गई ज्ञान-बुद्धि है। हमेशा क्या दूसरे की भलाई की जा सकती है? दूसरे की भलाई करने के लिए जाने पर अगर अपनी बुराई हो तो यह क्या कोई देखने आता है?''
अवंती क्या सनातन की इस धृष्टता पर क्रोधित हो उठती है? नहीं, नहीं होती है। अवंती जानती है, सनातन उन लोगों को सचमुच ही प्यार करता है इसलिए...
अवंती कहती है, ''भलाई करने की बात रहे'' सनातन-दा, आदमी के किसी दोस्त-मित्र का घर नहीं हो सकता है क्या?
सनातन अभिभावक के लहजे में कहता है, ''इससे यदि घर में अशांति फैले तो न रहना ही बेहतर है। कोई क्या छाता लेकर आएगा और आँधी-पानी से बचाएगा?''
चाहे जो भी हो, आखिर है तो नौकर ही, इसीलिए बरदाश्त नहीं किया जा सकता। तो भी देखने को मिलता है, ऐसे में अवंती एकाएक कहकहा लगाकर कहती है, ''वाह, सनातन-दा, तुमने आज-कल इतनी सीख देना सीख लिया है कि क्या कहा जाए! पाठशाला में मास्टरी करने जाओ तो अच्छा रहे।''
हाँ, इसी तरह हँसकर अवंती अपने नौकर का उपदेश अनदेखा कर जाती है। लेकिन नौकर के मालिक की बारी आने पर? क्यों उसकी मामूली बात से ही मन में फफोले उभर आते हैं?
टूटू मित्तिर कहता है, ''यह एक अच्छा तरीका खोज निकाला है। दोस्त की पत्नी, दोस्त की माँ। मैं कहूँ, यह बहानेबाजी है। और भी दसियों जिगरी दोस्त जमा होकर अड्डेबाजी को गुलजार करते रहते हैं।''
अवंती बेपरवाही के लहजे में कहती है, ''मर्जी हो तो कह सकते हो। बात पर कोई टैक्स नहीं देना पड़ता।''
''मेरा कहना है, यह सब नहीं चलेगा।''
''मैं भी तुम्हें स्मरण दिला देती हूँ कि यह हराम का जमाना नहीं है।''
ऐसा जब-तब होता रहता है।
अत: मानना ही पड़ेगा कि आकाश स्वच्छ नीला नहीं है, ईशान कोने में बादल मँडरा रहे हैं। उनका रंग क्रमश: गहरा होता जा रहा है। आंधी आने के आसार है।
वक्षस्थल के निकट एक ओर दमदमाते सोने के बटनों की कतार। चुन्नटदार बाँहों वाला महीन अद्धी का कुरता। फर्श पर लोटता हुआ मूँगे का काम किए हुए कांजीवरम् धोती का चुन्नटदार अग्रभाग। बालों के बीच माँग। और उन केश-कलाप और कला-कौशल से मिलता-जुलता उनका भौंरे जैसा रंग। पैरों में हिरन के चमड़े की चप्पलें, हाथ में बर्मी चुरुट। डनलपपिलो गद्दी वाले सोफे पर मखमल की मसनद। सामने कश्मीरी नक्काशीदार टी पॉय पर चाँदी की तश्तरी में मीठे पान की गिलौरी। ये हैं राजा अमियवल्लभ दत्त राय।
'राजा' खिताब को वे यत्न के साथ ढोते आ रहें हैं, इसकी घोषणा उनकी हवेली की नेमप्लेट कर रही है।
खिड़कियों पर लटके भारी परदों के टँगे रहने के कारण आधे अँधेरे कमरे में प्रवेश करते ही समझ में आ जाता है कि अमिय वल्लभ दत्त राय नामक व्यक्ति मध्ययुग के एक टुकड़े को आत्ममोह के माध्यम से पालते-पोसते आ रहे हैं।
अमिय वल्लभ के पिता ह्रदयवल्लभ की चौड़े फ्रेम में बँधी जो ऑयल पेंटिंग दीवार से सटकर खड़ी है, उसकी भी साज-सज्जा वैसी ही है। इस हवेली में एक लम्बे अरसे तक वास कर चुके हैं वे।
मार्लिन पार्क की यह हवेली ह्रदयवल्लभ ने ही असबाब समेत किसी अंग्रेज से खरीदी थी। उन्हीं जीर्ण सारो-समान से ही घर सजा हुआ है। नई साज-सच्चा के रूप में हैं डनलपपिलो का सोफासेट, फ्रिज, टी० वी० वगैरह।
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