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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

9

मगर नियमपरस्त निशीथ होश-हवास भूलकर नहीं खेलता है। दस बजने में जब ठीक एक मिनट बाकी रहता है तब सीढ़ी पर से चप्पल की आवाज आती है।

घड़ी की सूई दस पर पहुँचते ही परोसी हुई थाली के सामने बैठ जाएगा निशीथ।

आज थाली परोसी नहीं गई। आज ये काम पूरे करके ही उठेगी, यही सोचकर पूरी ताकत लगाकर मशीन चलाए जा रही थी सुलेखा। बार-बार घड़ी की ओर देख रही थी और हाथ की गति को और बढ़ा रही थी। अब सेकेंड के काँटे पर ही आँखें टिकी थीं।

मगर 'अंत भला' नहीं हो सका।

ईरा की थकान भरी कठोर आवाज कोड़े की तरह कानों पर आकर पड़ी। हाथ को रोक लिया उसने।

संकुचित आवाज में बोली, "दरवाजा तो मैंने अच्छी तरह बंद कर दिया था।"

"हाँ, दिया तो था, लेकिन इस कमरे में आकर देख जाती तो अच्छा होता।"

हालाँकि उसकी बात में कोई दम नहीं था। सुलेखा अगर उस कमरे में जाती तो सिलाई की मशीन अपने आप घूमकर ईरा की भयंकर तकलीफ से उसकी माँ को अवगत कैसे कराती?

फिर भी कह दिया उसने।

सुलेखा भी तो कह सकती थी, 'परीक्षा एक तू ही नहीं दे रही है, ईरा। मेरे लिए भी तो यह एक परीक्षा ही है। मुझे भी भोर होते ही पेपर सबमिट करना होगा।'

या फिर ताव दिखाकर कह सकती थी, 'तेरी पढ़ाई ही एक जरूरी काम है। मेरा काम फालतू है क्या?'

मगर इस तरह से बात करना मूर्ख सुलेखा नहीं जानती है। उसने वही कह डाला, जो उसे कहना आता था। बोली, "अरे, पहले कहना चाहिए था।" हालाँकि पहले नहीं कहा, इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया उसने। कम से-कम काम समाप्त होने को तो है। पहले कहने से यह भी नहीं हो पाता।

खैर, ईरा पर भाषा की इस नरमी का कुछ असर नहीं हुआ। उसने एक और बात कही।

पहले? उतनी हिम्मत नहीं है। फिर तो तुम रो पड़ती। सिर में बहुत दर्द हो रहा था तभी, नहीं तो"

इनके माथे सुलेखा की तरह सस्ते नहीं, आवाज से इनको दर्द महसूस होता है। सुलेखा मन-ही-मन संकोच से गड़ गई।

तीन दिन के बाद परीक्षा है उसकी और सुलेखा को उसका ध्यान ही नहीं रहा-छिह-छिह ! उसे मशीन की आवाज से इतनी तकलीफ होगी, सुलेखा को बिलकुल पता नहीं लगा।

झटपट उठ गई सुलेखा।

स्टोव जलाकर फटाफट मेज ठीक कर ली उसने; मगर रोटी बेलने से पहले ही सीढ़ी पर चप्पल की आवाज सुनाई पड़ी। सुलेखा सन्न रह गई। बीमारी ने वहमी बना दिया है निशीथ को। अचानक अगर किसी दिन दस बजकर पाँच मिनट हो जाएँ तो कहता है, 'रात ज्यादा हो गई है। दो रोटी कम कर दो, नहीं तो आज भोजन पचेगा नहीं।' यही सोचकर बदहजमी को दावत देता है वह । ईरा या नीरा अगर रोटी बेल देती तो काम जल्दी हो जाता, मगर सुलेखा उन्हें बुलाती नहीं है। क्यों नहीं बुलाती? क्या हिम्मत की कमी है? ऐसा कहना शायद ठीक नहीं होगा। इस एक मामले में बड़ी खुद्दार है वह। बच्चों को बुलाकर कभी काम नहीं लेगी, जैसे इसी में उसकी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। जैसे उसकी अयोग्यता प्रमाणित हो जाएगी। मानो सारे काम की जिम्मेदारी उसी की है।

हालाँकि मन में असंतोष की आँधी चलती नहीं क्या? जैसे हुआ करता था सास के अनुचित पीड़न पर? आँधी तब भी चलती थी, उसकी अभिव्यक्ति कुछ ऐसी होती थी-क्या खूब। अपने तो घंटे भर गंगास्नान करके आएँगी, इसी बीच सब काम हो जाएगा। जैसे कोई मशीन हूँ मैं । जैसे ही घर में कदम रखा, नाक सिकोड़ना शुरू। दया-माया कुछ नहीं है शरीर में? बहू ने कुछ खाया-पीया या नहीं, पूछा भी है कभी? ऐसी ही कितनी बातों का तूफान उठाता था।

यह आँधी निरुपाय सुलेखा को ही झकझोर जाती थी।

उसके बाद तो गंगा में कितनी लहरें आईं-गईं। अभिव्यक्ति का वही तरीका रह गया, केवल भाषा में बदलाव आया। अब तो मन-ही-मन कहती है वह, 'क्यों बुलाऊँ? उन्हें खुद होश नहीं! बड़ी हो रही है या नहीं? इधर मिजाज की गरमी दिखाने लायक उम्र तो हो गई है। दूसरी लड़कियाँ चौके की आधी जिम्मेदारी लेकर माँ का काम हलका कर देती हैं, यह नहीं सोचा कभी? क्यों? अपनी बुआ के घर देखा नहीं? मुहल्ले में? अड़ोस-पड़ोस के घर? लड़कियाँ लिखाई-पढ़ाई, सिलाई-बुनाई करती हैं, बाजार जाती हैं और माँ के काम में हाथ भी बँटाती हैं। और तुम लोग? बाप-भाई को एक गिलास पानी लाकर देने की भी अक्ल नहीं है।

जब भी दुखी होती है, सुलेखा के मन में बातों का तूफान उठता है। नहीं तो ऐसा भी देखा गया है कि इत्तफाक से अगर नीरा या ईरा ने चाय ही बनाकर थोड़ी मदद कर दी, सुलेखा मानो निहाल हो गई और संकुचित भी। मानो समय पर सुलेखा ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया। तभी बेचारी को इतनी तकलीफ उठानी पड़ी।

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