नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए वे बड़े हो गएआशापूर्णा देवी
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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...
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सुलेखा की प्रकृति में इस प्रकार का विरोध है।
शायद डरपोक लोग ऐसे ही होते हैं या बुद्धिहीन लोग। बुद्धिहीन केवल शाब्दिक अर्थ में नहीं, जो जन्म से ही मूर्ख होते हैं, उनकी ही यह दशा है। वे हमेशा अपराधी भाव से झुके रहते हैं। सुलेखा इन्हीं में से है।
सुलेखा के पिता की अकाल मृत्यु हो गई, इस अपराध का बोझ सलेखा ने अपने कंधों पर ले लिया, मानो उसी का दोष हो।
सुलेखा के चाचा को नौकरी में आशानुरूप पदोन्नति नहीं मिली और जीवन में एक बार भी लॉटरी में नाम नहीं निकला। इसे भी अपना दोष मानकर सुलेखा सिर झुकाए रही।
और सुलेखा की माँ दमे तथा गठिया की चपेट में पड़कर देवर की गृहस्थी में किसी काम न आती, मगर तीन-तीन लोग उसी परिवार में खाते पलते, इसी शर्म से सुलेखा अधमरी हो जाती थी।
शायद इसी कारण से सुलेखा के भीतर अपराधी भाव ने जड़ जमा ली थी।
ऊपर आकर निशीथ ने सारे दृश्य का पर्यवेक्षण किया और हैरान होकर बोला, "बात क्या है? अभी तक खाना नहीं बना?"
सुलेखा जल्दी से बेली हुई रोटी तवे पर रखकर बोली, "बस, अभी हो जाता है, हाथ-मुँह धो लो।"
"हाथ-मुँह पर मिट्टी नहीं चढ़ी है कि धोने में एक घंटा लग जाएगा।" कहकर नाराज निशीथ शायद हाथ धोने ही चला गया।
जैसे सुलेखा को ही घंटा भर लग जाएगा इन चंद रोटियों को सेंकने में।
बाप की आहट पाते ही दीपक, दीपंकर, ईरा, नीरा, तिन्नी-सब खाने के लिए आ गए।
खैर, आज सुलेखा को डर नहीं, उनकी रोटी तैयार है। शाम को ही बनाकर रख छोड़ी थी। इसके लिए सुलेखा के पास जोरदार तर्क है किरासन खत्म है और आज दुकान में मिली नहीं। स्टोव में इतना तेल नहीं कि सबकी रोटी बन जाए।
अत: शाम को कोयले के चूल्हे पर ही बनाने के सिवा और चारा ही क्या था। सुलेखा ने सोचा था-एक तरह से अच्छा ही है। आज सिलाई का काम पूरा कर लेगी।
बनी हुई रोटी तो परोसने में देर न लगी। निशीथ को दो मिनट रुकना पड़ा। उसी में निशीथ इधर से उधर चहलकदमी करने लगा। डरते-डरते खाना परोसते हुए सुलेखा सोचने लगी-गनीमत है कि दो रोटियाँ उठा लेने को नहीं कहा निशीथ ने।
लेकिन भावी डॉक्टर दीपक अपने कर्तव्य के प्रति सजग होकर बोल उठा, 'पता नहीं क्यों, बाबूजी को समय पर खाना भी नहीं दिया जाता है।'
जैसे रोज ही ऐसा होता हो। यही एक आदत है दीपक की। सच पूछो तो नीरा की भी।
अचानक कभी किसी दिन कोई दोष नजर आ जाए तो तुरंत कह देंगे, 'ऐसा होता ही क्यों है? वैसा क्यों नहीं होता?'
सुबह अकसर ही दाई आने में देर कर देती है। कितनी बार आती ही नहीं । कोयले का चूल्हा रोज एक-सा जलता भी नहीं। कभी हवा देनी पड़ती है। यह सब पलटकर भी नहीं देखते ये लोग। नीचे उतरते ही नहीं। सब अपने-अपने कमरे में पढ़ाई में डूबे रहते हैं।
मगर खाते समय अगर देखते कि बीमार पिता के लिए रोटी मुलायम नहीं बनी या बिना आलू की सब्जियों की संख्या कम है तो बड़े आराम से कहते हैं, 'सबकुछ होता है और बाबूजी के लिए इतना सा नहीं हो पाता है।'
हाँ, केवल पिता के लिए ही ऐसी बात नहीं करते, करते हैं अपने लिए भी। क्षुब्ध हँसी के साथ कहते, 'सुबह-सुबह सौ कामों में ध्यान न बँटाकर अगर सिर्फ इसी तरफ ध्यान देतीं तो अच्छा होता, माँ । ढेर सारी सब्जी बनाने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ अगर दाल-भात थोड़ा ठंडा रखतीं ! जल्दबाजी में इतना गरम कोई खा सकता है क्या?'
इसका अर्थ हुआ कि जल्दबाजी के अलग तरीके हों।
खैर, सुलेखा भी निर्लज्ज है। ऐसा ही क्यों नहीं करती?
उतनी जल्दबाजी में भी वह किसी के लिए आलू की भाजी और किसी के लिए मसालेदार मछली बनाने में लग जाती है।
सब एक सा खाते ही कहाँ हैं? एक-एक का स्वाद, एक-एक किस्म का है। दीपक को मिर्च-मसाला, सरसों बिलकुल पसंद नहीं। उधर ईरा केवल सरसोंवाली मछली ही खाना पसंद करती है। तिन्नी तो दाल को हाथ ही नहीं लगाती और दीपंकर दाल के बिना भोजन ही नहीं करता है। इसके अलावा किसी को परवल की भाजी बेहद पसंद है तो कोई उसे छूना भी नहीं चाहता है। नीरा को हमेशा तीखी, मसालेदार सब्जी पसंद है तो तिन्नी मिर्च मसालेदार सब्जी देखकर रोनी सी सूरत लेकर उठ जाती है। मछली में भी तो सबकी पसंद अलग-अलग है।
केवल गोश्त ही सबको पसंद है; मगर वह तो रोज दोनों समय बनाना संभव नहीं। और फिर उसे भी तो तीन बार पकाना होगा। निशीथ के लिए स्टू, तिन्नी और दीपंकर के लिए बिना मिर्च की 'करी' और बाकी सबके लिए मसालेदार।
उसे खुद कैसा खाना पसंद है, सुलेखा को पता नहीं। इन्हीं तीन तरह के पकवानों से जो बचता है, उसे मिला-जुलाकर अपना काम चला लेती है वह। डेगची, कड़ाही-जो हाथ लग जाए, उसी में लेकर खाने बैठ जाती है वह।
इस बात से भी नाराज होते हैं वे। अनायास ही कहते हैं, 'सबके लिए इंतजाम है। केवल माँ को ही एक थाली और कटोरी नसीब नहीं होती।' वह और कुछ नहीं, एक प्रकार का सुख है इसमें भी। आत्मपीड़न की इच्छा भी एक प्रकार की मानसिकता है; मानसिक व्याधि ही है एक प्रकार की। 'मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए।' यह भी एक प्रकार का मानसिक सुख है।
बहुत पढ़े-लिखें हैं ये लोग, इसीलिए दूसरे के मन को पढ़ लेते हैं।
ऐसा लगता है जैसे किताब के पन्ने को चिल्लाकर पढ़ रहे हों। उनकी समझ के आईने में सुलेखा की जो छवि झलकती है, उसे देखकर वह स्वयं ही हैरान हो जाती है।
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