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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

11

अपने बारे में सुलेखा जो कुछ नहीं भी जानती थी, अब सारा जान चुकी है। जानकर हैरान हो रही है। उसका मन इतना कुटिल है, खुद ही मालूम था क्या उसे?

इतनी सी बात पर ही सुलेखा की आँखें भर आईं। फिर भी कह नहीं सकी, 'अच्छा रे! रोज ही ऐसा होता है? यही देखते हो तुम लोग?'

नहीं कह सकी ऐसा. केवल तेजी से हाथ का काम निपटाने लगी।

मगर आज सुलेखा का नसीब खराब है। तभी तो निशीथ की आलू वर्जित स्पेशल सब्जी में आज स्वाद का बड़ा ही अभाव हो गया।

चीनी के बदले में सैकरीन और नमक के बदले के-सॉल्ट और तेल घी के बदले सूखी कड़ाही में चला-चलाकर सब्जी पकाना। उस सब्जी में स्वाद लाना कितना कठिन है-यह सुलेखा ही जानती है। फिर भी उसकी चेष्टा में कोई कमी नहीं है। वह तो ममता से खुद ही घायल है। आज न जाने क्या हो गया। निशीथ आज सब्जी को मुँह में डालते ही मुँह बिचकाकर अपनी विशेष भंगिमा के व्यंग्य और दुःख घोलकर बोला, “यह क्या बना है? है क्या यह?"

डरते-डरते सुलेखा बोली, "मागुल मछली का स्टू।"

"मागुर मछली का स्टू! ओह; मैंने सोचा, गदाल पत्ते का झोल*।" * यह पत्ता ओषधि के रूप में पकाकर खाया जाता है।

तब सुलेखा तो कह सकती थी, 'डॉक्टर कुछ भी तो सब्जी में डालने नहीं देते, कैसे स्वाद लाऊँ?'

मगर नहीं। मूर्ख की तरह डरते-डरते बोली, "अच्छा नहीं हुआ?"

अरे, क्यों नहीं!" निशीथ ने वही व्यंग्य भरी क्षुब्ध हँसी बिखराई और बोला, "बहुत अच्छा हुआ। देखो न, कितने चाव से खा रहा हूँ !"

सुलेखा मुँह फेरकर जल्दी से दूसरे काम में जुट गई। अभी इधर मुँह फेरना संभव नहीं है उसके लिए।

दीपक फिर से अपने कर्तव्य में जुट गया। गंभीर स्वर में बोला, "बाबूजी इतना सा तो खाते हैं। उसको जरा सा ध्यान से नहीं बनाया जा सकता क्या? हम लोगों के लिए इतना सारा न पकाकर उसमें थोड़ा समय देतीं तो.."

नीरा अचानक हँस पड़ी। बोली, "घबराओ मत श्रीमान भैया। हमारे यहाँ भी विशेष अंतर नहीं है। बस ठंडी-ठंडी रोटियाँ, कोहड़े का पसुआ और मछली की रसदार तरकारी, बस।'

ठंडी रोटी का जिक्र हुआ तो सुलेखा और चुप न रह सकी, रुंधे स्वर में बोली, “किरासन मिला नहीं, स्टोव में तेल नहीं भर सकी।"

"ओ हो, इसीलिए शाम को ही बन गई।" पैर हिलाते-हिलाते नीरा बोली, "इतना ही मुश्किल था तो थोड़े चावल ही पका लेतीं। खाकर हमें भी चैन मिलता। सुना है, चावल पकाना सबसे आसान है, मगर हमारे घर में वही सबसे दुर्लभ है।"

जैसे शाम का बना हुआ भात ही नीरा को खाने में अच्छा लगता। असल में उसे रोटी बिलकुल पसंद नहीं, गरम-गरम भात थोड़ा सा मिल जाए तो चैन से खाती है; मगर अधिकतर दिन वैसा हो नहीं पाता है। इसी बात का वह मजाक बनाती है। क्रोध नहीं करती। काफी सुशील और सभ्य है, इसीलिए नहीं करती है।

क्या सुलेखा को ही इस बात का दुःख नहीं है? क्या वह समझती नहीं, थोड़ा सा गरम भात मिलने पर नीरा कितना संतुष्ट होकर खाती है ! पहले तो करती भी थी यह सब। नीरा के लिए गरम भात, दीपक के लिए गरम पराँठे, बाकी सबके लिए गरम रोटी; मगर अब संभव नहीं हो रहा । 'समिति' की सिलाई ने सुलेखा का सारा अवसर छीन लिया है। काम के समय पर भी हमला बोल चुका है। सच कहा जाए तो उसे थोड़ा-बहुत जो समय मिल पाता है, वह है यही शाम का समय, जिस समय निशीथ सैकरीनवाली चाय पीकर खेलने बैठता है। इस समय बच्चे भी अपने-अपने काम में जुटे रहते हैं। कभी टहलने जाते हैं या संगीत सीखने या फिर पढ़ाई करते हैं।

यह कीमती समय भी क्या सुलेखा चौके में बिताए? फिर सिले हुए कपड़ों की सप्लाई कब देगी वह?

महिला समिति के लिए यह सिलाई का काम ऐसे ही तो नहीं करती है सुलेखा। ऑर्डर लेती है, सप्लाई देती है, पारिश्रमिक लेती है। वह राशि भी कुछ कम नहीं होती। क्या यह राशि घर के ही काम नहीं आती? दाल-रोटी पर न सही, बाकी जरूरतों पर? जब से बच्चे बड़े हुए हैं, कितनी माँगें हैं उनकी ।

इधर निशीथ पाई-पैसे का हिसाब लेता रहता है। न ले तो करे भी क्या? उसे तो पता है कि तीन-तीन बेटियों की शादी करनी है, दो बेटों को पाल-पोसकर बड़ा करना है। अत: उनकी शौकीन जरूरतों की ओर ध्यान देने में कोई बुद्धिमानी नहीं है।

निशीथ केवल बड़े बेटे को थोड़ा-बहुत जेबखर्च देता है, बाकी सबको अँगूठा दिखा देता है। बेझिझक कह देता है-उनका और खर्च ही क्या है? खाने-पहनने को मिलता है, स्कूल-कॉलेज की फीस भर दी जाती है, बस का भाड़ा मिल जाता है, बीमारी में दवा मिल जाती है और क्या चाहिए?

मानो वे निशीथ के कारखाने के मजदूर हों।

मगर ऐसा तो सच हो नहीं सकता। उनकी भी अनगिनत माँगें हैं। उन्हें म्यूजिक स्कूल की फीस के पैसे चाहिए, गिटार सिखानेवाले मास्टर की फीस चाहिए, लाइब्रेरी का चंदा चाहिए, दोस्तों के साथ सिनेमा देखने के पैसे चाहिए। रेस्टोरेंट में खाने के लिए, दोस्तों के जन्मदिन पर उपहार देने के लिए और कितनी सारी चीजों के लिए उन्हें पैसे चाहिए।

सीधे शब्दों में-सभ्य जगत् में निवास करने के लिए उनकी उम्र के लड़के-लड़कियों को जिन चीजों की जरूरत होती है, वह सब उन्हें चाहिए।

ये माँगें पूरी न हों तो वे क्रोध नहीं करेंगे? नाराज नहीं होंगे क्या? माँ बाप तथा अपने जीवन को धिक्कार नहीं देंगे क्या?

बाप की घोषणा सुनकर कुछ वैसा ही तो करने जा रहे थे। बाप के कान बचाकर और माँ के कान को लक्ष्य बनाकर आपस में कह तो रहे थे, 'होश खोकर मेंबर बढ़ाते समय तो याद नहीं रहा कि इन्हें बड़ा भी करना होगा। इनके प्रति कर्तव्य-पालन करना होगा। खाने-पहनने को दे रहे हैं, स्कूल की फीस भर रहे हैं ! ओह, कैसी अपार कृपा है रे दीदी ! हमें तो निहाल हो जाना चाहिए।'

सुलेखा के कानों तक आ गईं उनकी बातें। क्यों न हो, उसी को लक्ष्य बनाकर तो कही गई थीं।

जन्म से मूरख सुलेखा बच्चों को डाँटकर चुप नहीं करा सकी, अपमान से जल-भुनकर रास्ता खोजने लगी। उसने सोचा कि इस समस्या के समाधान का कुछ उपाय वही ढूँढ़ निकालेगी। स्वयं कुछ कमाकर बच्चों को देगी।

उस समय वह अपमान भी एक नया मोड़ ले रहा था। निशीथ के प्रति भयंकर क्रोध आ रहा था। क्यों तुम ऐसी बात करते हो कि उन्हें इस तरह बोलने का मौका मिल जाए? तुम्हारा मजाक उड़ाने की हिम्मत कैसे करते हैं वे लोग?

"ठीक है, मैं ही देखती हूँ कि बिना पढ़ाई-लिखाई किए भी कुछ किया जा सकता है या नहीं।"

सुलेखा ने यह काम जोश में आकर ले लिया, क्योंकि वह सिलाई में निपुण थी।

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