नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए वे बड़े हो गएआशापूर्णा देवी
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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...
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सरकार द्वारा संपोषित एक महिला समिति का पता चला। उस समिति में काम करनेवाली महिलाओं की बनाई वस्तुएँ सरकारी सहायता के नाम पर खरीद ली जाती हैं। इसके पीछे यह शर्त लगाई गई कि सप्लाई की संख्या सरकार द्वारा निर्धारित होगी। उसके नीचे सहायता नहीं मिल सकेगी।
अतः समिति की मौसीजी को कई एक भानजियाँ जुटाकर सप्लाई के काम को चालू रखना पड़ता है। सुलेखा ऐसी ही एक भानजी है। समिति की छात्राओं में उसे भी नाम लिखाना पड़ा और सिलाई के ऑर्डर के अनुसार सप्लाई देती रहती है।
सुविधा यह है कि नकद पैसे हाथोहाथ मिल जाते हैं और मिलते ही पैसे उसके नाबालिग बालक-बालिकाओं में बँट जाते हैं। अपने लिए उसके पास कुछ भी नहीं बचता।
नहीं बचता, कोई बात नहीं। सुलेखा अपने बच्चों के चेहरों पर मुसकान की छटा देख पाती है, यही काफी है। सुलेखा अपने अपमान की जलन को कुछ हद तक मिटाने में सफल होती है, यही काफी है उसके लिए।
नसीब से सिलाई की मशीन घर में ही थी। उसे खरीदना नहीं पड़ा। धागे, बटन, कपड़े आदि समितिवाले ही भेज देते हैं। सुलेखा को बस, मेहनत लगानी पड़ती है।
भले ही जी-जान लगाकर मेहनत करनी पड़े, ऐसे बिना मूलधन का व्यवसाय और हो भी क्या सकता है? जिसके पास विद्या का मूलधन न हो, आर्थिक मूलधन भी न हो, उसके पास तो शारीरिक श्रम ही एकमात्र मूलधन है। उसी के सहारे चलाए जा रही है सुलेखा-सबकुछ सँभालकर ही।
मगर सुलेखा यह सोचकर चाहे जितना भी संतोष कर ले कि सबकुछ सँभालकर ही सिलाई का काम करती है, सब सँभलता नहीं है। छोटी-मोटी गलतियाँ हो ही जाती हैं यहाँ-वहाँ।
दीवार पर जाले पड़ रहे हैं, बिस्तर गंदे होते जा रहे हैं, भंडार में कोई श्रृंखला नहीं, चौके में भी निहायत जरूरत से बाहर कोई शौकीन पकवान नहीं बन पाता है।
जब गृहस्थी मुश्किल से चलती थी तब तो नपे-तुले खर्चे में से बचत करके भी अकसर सुलेखा बच्चों की पसंद की चीजें बना दिया करती थी। उनके चेहरों पर खुशी की झलक देखने के लिए तकलीफ की परवाह नहीं करती थी। जीवन भर तो एक ठीके की दाई के सहारे ही चलाती आई है। ऊपरी काम करने के लिए ऊपरी मेहनत तो करनी ही पड़ती थी।
अब एक बहुत बड़ी सुविधा मिल गई है। अपने पास कुछ पैसे होते हैं। अचानक तेल, घी, चाय या चीनी की कमी हो जाने से निशीथ को बताए बिना ही काम चल जाता है। मगर अब कुछ और बन नहीं पाता है। अब तो बस, समय की ही कमी हो गई है। चंद पैसों के पास समय को बेच डाला है उसने । गृहस्थी के काम-काज के लिए थोड़ा सा बचाकर बाकी सारा बेच चुकी है वह। आज उस थोड़े से समय पर भी हमला हो रहा है कभी-कभी।
वह क्षमता से अधिक ऑर्डर ले लेती है। वादे के मुताबिक सप्लाई नहीं दे पाने से तो मर जाना बेहतर समझती है वह । मगर क्या वह यह ऑर्डर लोभ के वशीभूत होकर लेती है?
नहीं, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। समिति की मौसीजी के अनुसार सुलेखा जैसी दायित्वशील भानजी और कोई नहीं है। और वहाँ मौसीजी ने सरकार से अधिक-से-अधिक लाभ उठाने के लिए दो और केंद्र खोल दिए सुलेखा के सिवा और कौन जिम्मेदारी लेगा उन दोनों की? अतः ऑर्डर का दबाव बढ़ाती ही जाती है वह ।
सुलेखा लाख समय का रोना रोए, वह ध्यान ही नहीं देती। मजे से कहती है, 'तुम्हारी बेटियाँ तो काफी बड़ी हो गई हैं। उनसे भी तो घर के कुछ कामकाज करा सकती हो।'
इसका जवाब बाहरवालों को देना संभव नहीं। ऐसा प्रस्ताव करना तो दूर की बात, बच्चे तो उसकी सिलाई मशीन को ही सहन नहीं कर पाते हैं। . उसी के चलते घर में नित नई असुविधाएँ उभर आती हैं, यह तो उन्हें पता चल ही गया है।
कान के पास हरदम वही घर-घर की आवाज असहनीय हो गई है। विशेषतः मूल बात ही उनकी रुचि के विरुद्ध है। उनकी माँ कुछ पैसे कमाने के लिए दिन-रात दरजी की तरह सिलाई करती है, यही असहनीय है। कहीं दोस्तों को पता न चल जाए, इसी डर से तटस्थ रहते हैं सब।
"यह बोझा तुम ढोकर क्यों ले जाती हो? वे लोग आदमी नहीं भेज सकते हैं क्या?" तंग होकर बच्चे कहते हैं।
सुलेखा बड़बड़ाकर कहती है, "हाँ, भेजते तो हैं, एक-आध दिन मैं खुद ही."
"क्यों? एक-आध दिन भी क्यों? बेकार का काम।"
नीरा की सहेली शिप्रा की माँ किसी दफ्तर में काम करती है। ईरा की सहेली नवीना की माँ स्कूल में। अशोका की भाभी किसी 'ब्यूटी सैलून' में काम करती हैं। उनके काम को ये लोग इज्जत की दृष्टि से देखते हैं; क्योंकि नियमानुसार उन्हें साफ-सुथरे कपड़ों में बन-सँवरकर नौकरी के लिए जाना पड़ता है। उसकी इज्जत ही अलग है।
घर बैठे सिलाई करके बेचने का काम बड़ी-अचार-मुरब्बे बेचने से अच्छा भी है क्या?
नहीं! नीरा, ईरा, तिन्नू, दीपक और दीपंकर की माँ बहुत ही साधारण है; बड़े निम्न स्तर की है।
सुलेखा इस बात को नहीं समझती है। इस कर्मकांड के प्रति बच्चों की अवज्ञा और अश्रद्धा देखकर हैरान हो जाती है, दुःखी हो जाती है वह।।
किसके लिए मैं कर रही हूँ यह सब? अपने लिए? मैं अपना खून जला रही हूँ, तभी न तुम्हारे अरमान पूरे हो रहे हैं? देता तुम्हारा कंजूस बाप यह सब? पूरे होते तुम्हारे इतने सारे अरमान?
मगर यह सब सुलेखा चीखकर कह तो नहीं पाती। इसीलिए उन्हें पता नहीं चलता कभी, या शायद पता चलने पर भी वे लज्जित नहीं होते, बल्कि 'सुलेखा की मेहनत की कमाई को हाथ नहीं लगाएँगे' कहकर उसे ही लज्जित कर देते।
इस युग के बड़े हो गए' बच्चों से बड़ा डर लगता है।
किसी भी पल वे झिड़क सकते हैं, क्योंकि उनका आत्मसम्मान-बोध अत्यंत प्रबल है।
सुलेखा की तरह आत्मसम्मान-बोध से हीन नहीं हैं वे।
इसी बोधहीनता के कारण सुलेखा अवहेलना की पात्र है। जब सुलेखा निशीथ की डाँट खाकर रो पड़ती है, वे नाराज होते हैं । फिर थोड़ी देर बाद जब वही सुलेखा किसी हलकी बात का जवाब हँसकर देती, तब वे अवहेलना की दृष्टि से देखते हैं उसे।
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