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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

13

सुलेखा की कमाई से उन्हें सहूलियत हुई। फिर भी उस कमाई की पद्धति से उन्हें आपत्ति है, घृणा और असंतोष है। तभी तो सुलेखा की थोड़ी सी त्रुटि देखते ही उस मशीन को दोष देते हैं, उत्तरदायी ठहराते हैं। इसलिए जब दीपक डॉक्टरी ढंग से कहता है, "नहीं-नहीं, यह ठीक नहीं है। खाने पीने में कुछ वैराइटी लानी चाहिए। उससे रुचि बढ़ती है, भूख बढ़ती है।" तब तिन्नी भी हँस पड़ती है। कहती है, “हुँह ! उसके बदले तब तक माँ लोगों के बच्चों के फ्रॉक, शर्ट की कटिंग में वैराइटी लाएँगी। कब चौके से निकलकर माँ उस सिलाई मशीन के आगे बैठेंगी, बस यही सोचती रहती हैं।"

खैर, उसे भी दोष नहीं दिया जा सकता है। माँ के अस्तित्व को धीरे धीरे उसी मशीन की तरह हो जाते देख रही है बेचारी। पहले माँ का साथ कितना मिलता था। अब तो बस माँ की एक ही छवि नजर आती है। अच्छा नहीं लगता है।

खैर, वह तो छोटी है, अबोध है अभी; मगर जिन्हें बोध हो चुका है कैसे क्या होता है, कितने धान से कितना चावल आता है, जिन्हें पता है वे?

सुलेखा के काफी बड़े हो गए बेटे-बेटियाँ?

वे तो बड़े आराम से ही हँसकर बोल उठे, "वैराइटी नहीं है? क्या कहते हो, भैया? कल भिंडी की तरकारी और मछली, आज लौकी की तरकारी और मछली। फिर कल शायद देखोगे-परवल की तरकारी और मछली। और क्या चाहिए?"

हँस पड़े सभी। यहाँ तक कि निशीथ भी।

उसके कहने के ढंग से ही हँस पड़ा, मगर क्या सचमुच सुलेखा के सारे बच्चे निष्ठुर, ममताहीन हैं?

नहीं, नहीं। ऐसा कहना अनुचित होगा। वे तो इसे मजाक ही समझते हैं। मजाक ही करते हैं वे।

मगर यह भी सच है कि यह आडंबरहीन घर उन्हें पसंद नहीं आता है। यहाँ-वहाँ, लोगों के घर कितना कुछ देखकर आते हैं। यह घर पसंद नहीं आता है। इसीलिए इस घर को जब 'हमारा घर' कहते हैं, लगता है कि तब व्यंग्य ही कर रहे हैं।

'हमारा घर? अरे बाप रे! यह तो एक सनातन परिवार है। यहाँ सबकुछ सनातनी है।'

कभी-कभी सुलेखा कहती है, 'खैर, मैं तो पुराने खयाल की हूँ, तुम लोग तो नयापन ला सकते हो।'

नीरा भयभीत होकर कहती है, 'नहीं बाबा, रहने दो। ऐसे तुम्हारी प्रजा बनकर हम ठीक हैं।' __कहती है-ठीक है, मगर समालोचना हर कदम पर चलती रहती है।

'इस घर में फूल के पौधों के गमले? तिन्नी, तू है कहाँ?'

'किताब की अलमारी में गुड़िया? और मत हँसा रे। यहाँ तो दीवार पर माँ काली की छवि ही यथेष्ट है।'

ऐसा लगता है जैसे माँ काली की वह तसवीर उन्हीं की दादी की नहीं है। जैसे कि इस घर की सारी रुचिहीनता के लिए सुलेखा ही उत्तरदायी है। सुलेखा तो केवल एक बड़े परिवार के पुराने जंजालों के बीच रहकर अपनी गृहस्थी चलाए जा रही है, यह उन्हें याद नहीं रहता है। निशीथ को तो वे इस गिनती में लाते ही नहीं।

भाई-बहनों में होड़ लगी रहती है-कौन कितनी मजेदार बात कह सके।

और फिर जब अपनी पढ़ाई-लिखाई की दुनिया में खो जाते हैं, सुलेखा को उनकी बातें समझ ही नहीं आती हैं।

नीरा बीच में ही बोल पड़ती है, "दीदी, मेरे पीछे खूब जमकर पढ़ाई कर ली है न?"

ईरा निराश भाव से कहती, "जमकर? हे भगवान् ! एक अक्षर भी नहीं। दिमाग के भीतर तो इंजन चल रहा था। बाप रे!"

इस इंजन के बारे में सभी को पता है। अचानक निशीथ नाराज स्वर में बोला, "क्यों? जोर-शोर से सिलाई चल रही थी क्या? यह बकवास सिलाई का काम खत्म ही नहीं होता तुम्हारा? बच्चों की परीक्षा के समय तो कम से-कम लिहाज करोगी!"

ईरा अपने पिता को रंगमंच पर उतरते देखकर थोड़ा सकपका गई। जल्दी से बोली, "नहीं, उसकी हमें आदत पड़ गई है। चूँकि आज सिर में बड़ा दर्द हो रहा था, इसीलिए."

कुछ तो कहना ही था।

सुलेखा का इस प्रकार पैसा कमाना निशीथ को भी फूटी आँख नहीं सुहाता है। मौका पाते ही अपनी भड़ास मिटा लेता है वह। अब भी उसने कहा, "कह देना अपनी समिति की मौसी से, नहीं होगा अब मुझसे।"

"कह दूं यह बात?"

"हाँ, कह दो। क्यों? तुम्हारी उस समिति की कमाई के बिना क्या चूल्हा नहीं जलेगा घर में?"

सुलेखा तो इसी पल भाँडा फोड़ सकती थी, जिसे ढोते-ढोते वह थक चुकी है।

वह कह सकती थी, 'नहीं, चूल्हा जलना बंद नहीं होगा; मगर और बहुत कुछ बंद हो जाएगा। क्या-क्या बंद होगा, अपनी बेटियों से पूछ लो।' मगर कहे तो कैसे? बराबर का अनभ्यास जो है।

सुलेखा शांत स्वर में बोली, "भला ऐसा कहा जा सकता है क्या?" सुलेखा की बेटियों की जान में जान आई।

वे भी डर गई थीं-अगर माँ कह दें, बंद करने से तुम्हारे बच्चों के जेबखर्च कहाँ से आएँगे? कैसे पूरे होंगे उनके अरमान?

माँ मूर्ख हैं, इसलिए अवहेलना की पात्र हैं। उधर सीधी-सादी है, इसीलिए उससे डरने की कोई जरूरत नहीं है।

यह नहीं सोचते कि वह शिष्ट है, सोचते हैं, सीधी-सादी है।

उसी निश्चित विश्वास के साथ अगले दिन ही नीरा कह सकती है, 'माँ, तुम्हारे पास पंद्रह रुपए होंगे? पिछले महीने एक लड़की से कर्ज ले लिया था।' यह एक चालाकी है।

जानती है, कर्ज चुकाने के मामले में माँ अब नहीं, तब नहीं करेगी।

फिर भी सुलेखा बोली, "फिर वही उधार का कारोबार । कितनी बार कहा तुझे, उधार मत लेना"।

"वाह ! अचानक जरूरत पड़ने पर क्या किया जाए?"

"कॉलेज में तुझे अचानक क्या जरूरत पड़ जाती है, मेरी समझ में नहीं आता।"

नीरा माँ की पीठ पर हाथ फेरकर गले से प्यार छलकाकर बोली, "नहीं समझोगी मेरी माता, नहीं समझोगी। अच्छा, अभी दे तो दो, आकर समझा दूंगी।"

कल से मन दुःखी था ही। पैसे देकर शिकायत के ढंग से सुलेखा बोली, "तेरे बाबूजी ने तो नवाबी हुक्म सुना दिया-मौसी को कह देना, पर समिति के ये पैसे मेरे पास रहते हैं। तभी तो जरूरत पर."

सुलेखा कभी मेरी कमाई' के रुपए नहीं कहती है। कहती है, 'समिति के रुपए।'

अभी भी वही कहा उसने । आँचल घुमाते हुए नीचे जाते-जाते नीरा कह गई, "बाबूजी की बात रहने दो।"

ऐसे ही बात करती है नीरा। उसके चले जाने के बाद भी उसी तरफ देखती रही सुलेखा।

हमेशा से ही नीरा शौकीन और खर्चीले स्वभाव की है। पता नहीं किसके घर जाएगी।

निशीथ जैसा कंजूस क्या बेटियों की अच्छे घर में शादी करने की कोशिश करेगा? ईरा की सेहत नीरा से अच्छी है। वही बड़ी लगती है। दोनों के लिए एक साथ ही लड़का मिल जाता तो अच्छा होता । नादान सुलेखा इन बेटियों के लिए रिश्ता ढूँढ़ने को अपनी जिम्मेदारी समझती है।

उसकी अति 'चालू' मझली बेटी ने इसी बीच वह जिम्मेदारी अपने कंधे पर उठा ली है, यह सपने में भी नहीं सोचा था उसने।

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