नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए वे बड़े हो गएआशापूर्णा देवी
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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...
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'चालू' लड़की नीरा ने सड़क पर पाँव रखते ही सोचा-बड़ी बेवकूफी हो गई। बीस रुपए माँग लेने चाहिए थे। जहाँ पंद्रह वहीं बीस दे ही देती माँ। इतनी तंगी में तो और रहा नहीं जाता। कब ये दिन निकलेंगे, पता नहीं। आश्चर्य की बात है कि सुना है, मेरे बालिग होने में अभी तक कुछ महीने बाकी हैं । यह कानून शायद देश भर के बुद्धओं ने मिलकर तैयार किया था। कई लोग तो अस्सी वर्ष में भी बालिग नहीं होते हैं। मैं क्या उनमें से हूँ?
पाराशर तो कहता है, कोई तरकीब क्यों नहीं निकालती मैडम, अपनी उम्र के लिए? और कब तक इस तरह जलाकर मारोगी? तरकीब लगाऊँ क्या? हायर सेकेंडरी का सर्टिफिकेट ही तो एक जबरदस्त दलील है। अत: अभी और कुछ दिनों तक इसी तरह चलाना पड़ेगा और उसके सामने अपनी इज्जत रखने के लिए माँ के आगे हाथ फैलाना होगा। गनीमत है कि माँ के पास कुछ पैसे रहते हैं, नहीं तो पता नहीं क्या होता! श्रीमान पिताजी की जेब से तो फूटी कौड़ी भी नहीं निकलती। उन्होंने तो बहुत पहले ही ऐलान कर दिया है-- भोजन, कपड़ा, दवा और स्कूल-कॉलेज की फीस के अतिरिक्त और कुछ पाने का हक नहीं बनता उनके बच्चों को। उफ, कैसे घर में पैदा हुए थे हम सब!
मोड़ पर पाराशर खड़ा था।
नीरा ने भौंहें तानकर कहा, "आज तो तुम्हारा ढाई बजे तक क्लास था न? फिर भी कंगले की तरह सड़क पर आकर खड़े हो!"
हाँ, पाराशर के भी क्लास होते हैं। नीरा जहाँ पढ़ती है, पाराशर वहाँ पढ़ाता है; मगर विषय अलग-अलग हैं।
फिर भी एक दिन दोनों का मिलन हो गया। पता नहीं विधाता के मन में क्या था। उदास चेहरा बनाकर पाराशर बोला, "गृहहीन, लक्ष्मीहीन लोग सड़कों पर ही घूमते-फिरते हैं।"
"तो फिर घूमते रहो, समाधान जब निकल नहीं रहा है।"
"अच्छा, तुम्हारी उम्र क्या दो साल में एक बार बढ़ती है?''नीरा की बाँह पर जोर से चिकोटी ली पाराशर ने, "बस, और कुछ महीने-कहकर दो साल से तो टाल रही हो।"
"बकवास मत करो। समय अपनी गति से चलता है। खैर, रवींद्र सदन ही जा रहे हो न?"
"महारानी को फुरसत मिले तब तो! उन्हें तो बातें बनानी पड़ेंगी, अभिभावकों की आँखों में धूल झोंकनी पड़ेगी, लौटते समय अबोध बालिका जैसा खिला हुआ चेहरा लेकर जाना होगा, जिसके लिए चेहरे पर कोमलता और आँखों में सरलता लानी पड़ेगी।"
गंभीर भाव से नीरा बोली, "अब और वह सब नहीं करूँगी, निश्चय कर लिया है मैंने। 'अब जो हो नसीब में' मानकर बता दूँगी सबकुछ।"
"अहा-हा! महान् देवी, कब किस शुभ घड़ी में ऐसी शुभ बुद्धि मन में उदित हुई?"
"अभी, इसी पल। अब और नहीं सहन होता।"
पाराशर ने व्याकुलता का अभिनय किया, "तो फिर कल ही चला आऊँ क्या? दोनों युगलमूर्ति होकर तुम्हारे जनक-जननी के पैरों पर गिरकर आशीर्वाद-प्रार्थना कर लेते हैं!" ।
"ज्यादा बकवास मत करो। इतने दिन धीरज रखने के बाद अब थोड़े दिनों के लिए बेचैन हो रहे हो?"
"धैर्य के अंतिम छोर पर पहुँचकर ऐसा ही होता है।" "देखो, तुम एक अध्यापक हो।"
"फिजिक्स नहीं, बँगला का।"
"ओह, इसीलिए तुम्हें वाचाल होने का अधिकार है, क्यों? रहने दो यह सब बात। यह लो, आज के टिकट का खर्चा मेरी तरफ से।" नीरा ने दस रुपए का नोट बैग से निकाल दिया।
पाराशर ने आनाकानी की, पर नीरा ने लिवाकर ही छोड़ा। अंत में उसने राय सुना दी, "जब तुम्हारे कंधे पर सवार हो जाऊँगी तब देखना, कैसे खून चूसती हूँ। अभी कुछ लौकिकता के नियम मानकर चलना ही उचित होगा।"
अगर सुलेखा ने बेटी के इस भाषण को सुन लिया होता तो घबराहट के मारे हाथ-पाँव ढीले हो जाते उसके।
इस युग के प्रेमालाप की भाषा ऐसी है, सुलेखा को इसकी खबर नहीं इस युग की ऐसी कितनी ही बातों से सुलेखा अनजान है; जबकि एक ही छत के नीचे, एक ही चौहद्दी के भीतर रहकर सुलेखा के ही हाथों पल बढ़कर उसके बच्चों ने इतना जान लिया?
क्या सुलेखा लोगों के घर नहीं जाती है? बाहर नहीं निकलती है, दुकानों में जाकर चीजें नहीं देखती है क्या? करती सबकुछ है, केवल उसके मन की आँखें बंद रहती हैं। वह कभी ऐसा नहीं सोचती कि इन चीजों में मेरा भी अधिकार क्यों नहीं होगा।
सुलेखा तो बस इंतजार किए जा रही है-कब वे बड़े होंगे; मगर हर पल यह भी अनुभव हो रहा है कि उसका इंतजार खत्म हो गया है। काम की सहूलियत के लिए आजकल सुलेखा ने ऊपर ही भंडार की चीजें सजा ली हैं। बरामदे के दूसरे छोर पर एक पतले से कमरे में है उसका भंडार। उसी कमरे में नीचे बैठकर सुलेखा भी सब्जियाँ काटकर रखती है। सुबह सब्जी काटना, मसाला पीसना-दोनों नहीं हो पाता है। गरमी आ गई, बासी मसाले से काम नहीं चलता है। कम-से-कम सब्जी कटी हो तो आराम मिलता है। गरमी से परेशान होकर हँसुआ लेकर बरामदे में निकल आई तो सुलेखा ने सुना, उसकी बड़ी बेटी कह रही है, "अभी तक माँ क्या कर रही हैं?"
मझली बेटी का जवाब भी सुनाई पड़ा उसे, "और क्या, वही राज कार्य! सुबह हम जो पुलाव कोर्मा खाएँगे, उसी की तैयारी हो रही है।"
अब तिन्नी की आवाज आती है, “अगर एक फ्रीज होता तो कितना आराम हो जाता! कुंती के घर फ्रीज है। देखती तो है, उसकी माँ को कितना आराम है ! दो-तीन शाम का खाना पकाकर फ्रीज में भर देती है और घूमती है, सिनेमा जाती है। काश, हमारे भी घर में एक होता!"
"फ्रीज ! हँसो मत तिन्नी। दम फूलकर मर जाऊँगी। हमारे घर में फ्रीज! सपने में भी ऐसी आशा मत करना। हमारा घर हमारी माता ठकुरानी की तरह ही आदि और अकृत्रिम है। अभी तक लकड़ी, कोयले और गोइठे का राज है। और देखो तो, प्रायः सभी घर में आज गैस का चलन है।"
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