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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

8

वे बेचारे दुःखी मन से लौट गए थे; मगर ऐसी भयंकर वार्ता सुनकर क्या कलेजा नहीं काँप उठा था सुलेखा का? क्या उसको दौड़कर उस गाड़ी में बैठने की इच्छा नहीं हुई थी? क्या डरी नहीं थी वह कि कहीं निशीथ से फिर मुलाकात ही न हो?

और जैसे ही धूल उड़ाकर वह गाड़ी निकल गई, क्या सुलेखा की जान उस धूल पर लोटने नहीं लगी? फिर भी सुलेखा ने अपने आपको सँभालकर रखा था। कलकत्ता जैसे बड़े शहर में कितने तरह की धोखाधड़ी भी तो होती है।

उसका बेटा दीपक पंद्रह साल का था। स्कूल से उसके लौटते ही सारी बात सुलेखा ने उसे बताई और कहा, 'चल बेटा, चलकर देखते हैं, कहाँ है यह ईस्ट लैंड नर्सिंग होम।'

दीपक ने घबराकर कहा, 'यह चाइनीज टैंपल रोड किधर से निकलता है, मुझे तो पता ही नहीं।

सुलेखा ने व्याकुल होकर कहा, 'मुहल्ले के किसी सज्जन से पता करके आ बेटे! नहीं तो एक बार पोस्ट-ऑफिस जाकर पता कर ले। तू एक रिक्शा बुलाकर ला, मैं भी साथ चलती हैं, अब और ठहर भी नहीं सकती यहाँ।'

दीपक बिगड़कर बोला, 'इतनी बड़ी बात सुनकर तुम गईं कैसे नहीं? पिताजी के दफ्तर के दोस्त हैं। नीहार बाबू का नाम पिताजी से सुना नहीं कभी?'

'सुना था दीपू, मगर देखा था क्या?'

'नहीं देखा तो क्या? यों ही कोई ऐसी झूठी बात बताने आएगा ही क्यों?'

तब तक बाकी बच्चे भी आ गए।

बड़ी और मझली-दोनों बेटियों ने दीपक के सुर में सुर मिलाकर माँ को धिक्कार दिया और उस ईस्ट लैंड नर्सिंग होम का अता-पता ठीक तरह से मालूम न करने की गलती पर उनकी अक्ल की भी निंदा की।

वे बड़े हैरान हुए यह सुनकर कि 'घर में कोई नहीं है', यह सोचकर माँ धीरज के साथ किस तरह बैठी रहीं।

इसके बाद जब दीपक मुहल्ले के लोगों से उस नर्सिंग होम के बारे में पूछताछ कर निराश होकर घर लौट रहा था, तब निशीथ वापस लौटा दफ्तर से। सही-सलामत।

अंत में जाकर पता चला कि सारी घटना ही एक मजाक थी। दफ्तर में अचानक किसी बात पर आधे दिन की छुट्टी हो गई थी। सब बैठकर चाय पी रहे थे कि शरारती स्वभाव के नीहार बोस को यह शरारत सूझ गई।

किसकी पत्नी कितनी अक्लमंद है, देखना चाहिए। अतः झटपट प्लान तैयार । नर्सिंग होम और उसका पता लेकर निकल पड़ा।

जिन-जिनके घरों में अन्य सदस्य हैं, वहाँ-वहाँ नहीं गया। जिन घरों में गृहिणी अकेली है, केवल उन्हीं के घर जेब से टैक्सी का किराया देकर ऐसा मजाक! ऐसा भयंकर मजाक!!

हाँ, तो यह मजाक भयंकर ही हो गया था सुकुमार बनर्जी के घर । सुनते ही उनकी पत्नी बेहोश हो गईं। गनीमत थी कि घर में एक दाई थी, जो मालकिन के चेहरे पर फ्रीज का ठंडा पानी छिड़कने लगी। समाचार देनेवाला उसी बीच रफू-चक्कर हो गया।

उधर बसंत बाबू की पत्नी तो घर के छोटे से नौकर के हाथ सबकुछ छोड़कर आँसू के दरिया में बहती गाड़ी में चढ़कर चली आईं।

हालाँकि आकर पहुँची दफ्तर के दरवाजे पर। बसंत बाबू बाहर निकलकर इनका 'मधुर स्वागत' करते हुए धिक्कार देते-देते घर लौटे।

सरोज बाबू की पत्नी घबराकर बैठ गईं और रोते-रोते बोलीं, 'पास ही मेरे भाई का घर है, छोटे भाई को साथ लेकर आती हूँ।'

दौड़ गई थी दीवानी की तरह; मगर जब भाई को लेकर लौटी तो पंछी उड़ गया था।

खैर, यह सब विस्तार में सुलेखा ने बाद में सुना था—किसी एक ऐसे सुनहरे पल में, जब निशीथ का 'मूड' अच्छा था।

मगर उस दिन निशीथ ने सुलेखा की जरा भी तारीफ नहीं की, बल्कि कहा कि दोस्तों के सामने उसकी इज्जत नहीं रही।

नीहार बाबू ने कहा था, 'जनाब, आपकी बीवी है बड़ी स्ट्रांग। और भी तीन लोगों को तो देखा! ओह । एकदम पति-हीना सती। और आपकी बीवी। बाप रे! क्या जिरह करने लगी! मुझे तो डर लगने लगा, कहीं पुलिस न बुला ले। जरा सा भी घबराते नहीं देखा जनाब। और दिमाग कितना ठंडा! कब हुआ, कैसे हुआ, कौन अस्पताल ले गया, सब खोद-खोदकर पूछने लगी।

'इसका मतलब उन्हें लगा कि मेरे लिए तुम्हारे दिल में कोई बेचैनी नहीं है।'

और अगर मैं उसके साथ निकल पड़ती तो तुम्हें ठीक लगता? तुम मुझे बुद्धिमान कहते?' सुलेखा ने कहा।

निशीथ की हँसी में धिक्कार झलक रहा था। उसने कहा, 'क्या कहता, वह बड़ी बात नहीं है। उस समय तुम्हें यही याद रहा कि लोग तुम्हें अच्छा कहेंगे या नहीं, बुद्धिमान कहेंगे या नहीं, यही असली बात है।'

दरअसल (सुलेखा ने बाद में समझा) पति की अंतिम दशा सुनकर भी सुलेखा होश-हवास नहीं खो बैठी-इसी से दोस्तों के आगे निशीथ का सिर नीचा हो गया।

लेकिन अगर सुलेखा बसंत बाबू की पत्नी जैसा कांड कर बैठती तो क्या निशीथ खुश होता? इज्जत रहती उसकी? जीवन भर उस मूर्खता के लिए धिक्कारता नहीं रहता सुलेखा को?

हो सकता है, अगर वह सुकुमार बनर्जी की पत्नी की तरह बेहोश होकर गिर पड़ती तो निशीथ को अच्छा लगता, या शायद वह भी नहीं।

निशीथ किस बात से खुश होता है, कहना कठिन है। शायद सुलेखा में अक्लमंदी की झलक भी उसे विशेष पसंद नहीं।

बस, वही एक बार सुलेखा निशीथ के दफ्तर के सहकर्मी के सामने गई थी, बात की थी उसने।

आते तो हैं कितने ही लोग, पर निशीथ नहीं कहता कि चलो, परिचय करा दूं। बच्चे भी नहीं चाहते कि माँ उनके दोस्तों के सामने निकले। क्या यह सुलेखा का ही दोष है?

सुलेखा ही अपने आपको मंच पर प्रतिष्ठित करने का कौशल नहीं जानती है।

खैर, अब मित्र की पत्नी के पास निशीथ का आना-जाना छूट गया है। अब उसके शरीर में बीमारियों ने घर कर लिया है। आलू, चीनी, भात, मसालेदार खाना-सब बंद। यही बड़ा अफसोस है सुलेखा को। गृहस्थी में थोड़ी सी सहूलियत लाने के लिए एड़ी-चोटी एक करती रहती है सुलेखा, मगर घर का मुख्य सदस्य इन सबसे वंचित रह जाता है। जब से बीमारी ने दबोचा है, निशीथ चिड़चिड़ा भी हो गया है। और वही एक नशा लगा है ताश की बाजी का। मुहल्ले के कुछ लोग आते हैं। रात तक बाजी चलती रहती है।

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