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वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

7

सहेलियों के चले जाने पर तो खूब नाराजगी दिखाई उसने, 'कहा तो था कि चाय के अलावा और कुछ नहीं चाहिए। किसने तुमसे चूड़ा और पापड़ छानकर लाने को कहा? बेकार ही देर लगा दी। मैं कब से कान खड़े करके बैठी हूँ। चम्मच की आवाज आती ही नहीं।'

सुलेखा ने संकोच के साथ जवाब दिया, 'अहा, वे अपनी दोस्त के घर आईं, सिर्फ चाय पीती?'

तो क्या? इतनी देर करने से अच्छा नहीं लगता है। और तुम कपड़े भी ऐसे पहने रहती हो। उनकी माँएँ कभी ऐसे नहीं रहती हैं।'

सुलेखा ने सोचा कि यह उसकी बेटी की नादानी है।

शायद कभी किसी की माँ को बन-सँवरकर रहते देख लिया होगा, नहीं तो गृहस्थ के घर, जिन्हें खुद पकाना, घरबार सँभालना पड़ता है, हमेशा टिप-टॉप रहने से उनका काम चलेगा भला!

इसलिए हँसकर बोली, 'तेरी उन सहेलियों की माँएँ क्या दिन-रात सज-सँवरकर रहती हैं?'

नीरा ने ऊँचे स्वर में जवाब दिया, 'सजने-सँवरने और साफ-सुथरा रहने में क्या अंतर है, वह समझना तुम्हारे बस में नहीं है, माँ। तुमसे कुछ कहना बेकार है। तुम सोचती हो, एक तुम्हीं खाना पकाती, घर सँभालती हो और सबकी माएँ कुरसी पर आराम से बैठी रहती हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है। शर्मिला की माँ को ही ले लो। वह क्या नहीं करती हैं.? केवल दाल-भात ही क्यों, चॉप, कटलेट, केक, पुडिंग सबकुछ बनाती हैं। उनके घर रोज ही यह सब बनता है; मगर जाकर देखो, हमेशा सलीके से साड़ी पहने रहती हैं। पैरों में चप्पल टिप-टॉप। और हमारे यहाँ मामूली से पकवान बनते हैं। फिर भी तुम उसी में कितनी परेशान दिखती हो। पता नहीं क्या सोचते हैं वे लोग।'

सुलेखा समझ गई है कि दोस्तों के सामने माँ को उपस्थित करने में गौरव नहीं महसूस करते उसके बच्चे, अगर दिखा जाए तो मुश्किल में पड़ जाते हैं। तब से और नहीं जाती है।

जैसे निशीथ के चार दोस्तों के सामने नहीं निकलती है, परदे के पीछे से चाय भेज देती है, ईरा-नीरा के दोस्तों के लिए भी वही तरीका अपना लिया है उसने।

नहीं, निशीथ ने कभी नहीं कहा, 'मेरे दोस्त आए हैं, चाय-नाश्ता तुम्ही लेकर आओ। उनसे बातचीत तो करो।'

कहता तो कोई अनोखी बात नहीं होती। सुलेखा इतने पुराने जमाने की लड़की तो थी नहीं। उसके जमाने में ऐसा खूब चलता था।

कितनी बार तो स्वयं निशीथ ही दफ्तर से लौटते हुए दोस्त के घर होकर आया और बड़े उत्साह से उसने सुनाया, 'दोस्त की बीवी ने जबरदस्ती ठूसकर खिला दिया।' और सुनाता, 'दोस्त की बीवी इतनी बातूनी है कि बातों के जाल से छूटकर आना मुश्किल हो जाता है। तभी तो इतनी देर हो गई।'

सुलेखा ने कभी-कभार मजाक में कह दिया, 'सिर्फ बातूनी या फिर सुंदरी भी। केवल बातों के जाल में तुम्हारे जैसे आदमी को रोककर रख सकी?'

निशीथ इस परिहास को सरलता से नहीं ले सका। अचानक मुँह बनाकर बोला, 'जिनका मन संकीर्णता में बँधा है, वही ऐसी बात कर सकते हैं। होगा क्यों नहीं? शिक्षा के बिना चित्त का प्रसार हो भी कैसे?'

निशीथ कभी भी कहानी या प्रबंध-साहित्य की चर्चा नहीं करता; मगर ऐसे मामलों में बिलकुल शुद्ध भाषा का प्रयोग करता है। प्रयोग-कला उसे अच्छी तरह आती है।

जिंदगी में एक दिन सुलेखा निशीथ के एक मित्र के सामने निकली थी-अर्थात् निकलना पड़ा था। वह एक अजीब परिस्थिति थी। दोपहर का सन्नाटा, सब बच्चे स्कूल गए हुए थे। उस साल दीपंकर भी सुबह के स्कूल से छूटकर दोपहर की क्लास ज्वॉइन कर चुका था। अकेली सुलेखा काम काज से निपटकर बँगला अखबार के पन्ने उलट रही थी। अचानक दरवाजे पर खटखटाने की आवाज हुई। उसने सोचा कि यह तो दाई के आने का समय नहीं है।

पहले वह ऊपर के बरामदे से झुककर देख लेती है, फिर दरवाजा खोलती है। इसी आदत के अनुसार झुककर उसने देखा-कोई अनजान व्यक्ति खड़ा है। कह रहा है, 'एक बार नीचे आइए।'

इसका क्या अर्थ हुआ? 'नीचे आइए' कहने से ही नीचे उतर जाएगी सुलेखा? है कौन? बात क्या है?

पता चला, बात बहुत गंभीर है।

निशीथ के दफ्तर के ही सहकर्मी हैं वह । एक बुरी खबर लेकर आए हैं । खबर यह है कि अचानक अस्वस्थ होकर निशीथ दफ्तर से ही अस्पताल चला गया, स्थिति संकटजनक है। अगर सुलेखा देखना चाहती है तो साथ चले। हो सकता है, अंतिम मुलाकात ही हो।

इसलिए वह गाड़ी लेकर आए हैं। सुलेखा ने उनके साथ बातचीत की, मगर साथ नहीं गई।

उसे लगा कि मित्र-पत्नी को मित्र की अंतिम अवस्था की खबर देनेवाले का चेहरा ऐसा नहीं होता है।

ऐसा लगा कि बातचीत कुछ नकली-सी, हड़बड़ी जरूरत से ज्यादा ही और स्वर में जिस पीडा का आभास होना चाहिए, उसका सर्वथा अभाव था।

हालाँकि हर व्यक्ति की प्रकृति एक नहीं होती है। हो सकता है, यह हलके-फुलके स्वभाव का हो। फिर भी सुलेखा ने कहा था, 'इसी पल आपके साथ चलना तो संभव नहीं है। मेरा बड़ा बेटा जब तक न आ जाए...'

'मगर उसकी हालत की कोई निश्चयता नहीं' सुलेखा ने फिर कहा था, 'मेरा नसीब! मगर भगवान् इतने निष्ठुर होंगे क्या?'

इसके बाद सुलेखा ने अस्पताल का नाम-पता और बेड नंबर पूछा था। उस व्यक्ति ने कागज का एक टुकड़ा थमा दिया था।

अर्थात् तैयार होकर ही आया था कि अगर सुलेखा तुरंत ही साथ न जा सके।

सुलेखा ने उस आदमी को इतनी तकलीफ उठाने के लिए बहुत धन्यवाद दिया था।

हालाँकि अभ्यास की कमी के कारण 'धन्यवाद' शब्द का प्रयोग नहीं किया था उसने।

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