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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

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छोटे भाई-बहनों को बुखार हो या कोई बीमारी हो तो आराम से ये लोग 'क्या? कर लिया न बुखार? होगा क्यों नहीं? कैसे मन मरजी चलते हो?' कहकर बड़े होने का फर्ज अदा कर देते हैं।

या फिर कहते हैं, 'क्यों? कितने फुचके खाए? नहीं खाए? मान लूँ ऐसे ही? पेट-दर्द क्या यों ही हो गया बच्चू? इसकी जन्मदात्री है फुचका।'

बस, सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं।

और सुलेखा? बचपन की बात याद आ जाती है।

छोटे भाइयों की तबीयत खराब हो तो उन्हें छोड़कर कहीं घूमने जाने की कल्पना भी नहीं कर पाती थी। सिरहाने बैठी रहती थी, कुछ खाने का दिल नहीं करता था। और खाने की जगह पर एक आसन कम बिछाते देखकर दिल कलप उठता था।

जब बेटियाँ थोड़ी छोटी थीं तब कभी-कभार इस तरह की चर्चा करती थी सुलेखा । कहती थी, 'तुम लोगों से होता भी है । मुन्ना बुखार से जल रहा है और तुम लोग आराम से सिनेमा देख आए?'

बस इतना ही, इससे अधिक नहीं।

मगर उतने से ही मझली बेटी मुँह फुलाकर कहती थी, 'घेरकर बैठे रहने से ही अगर बुखार छूट आए तो आगे से किसी को बुखार होने पर कोई घर से बाहर नहीं निकलेगा।'

और छोटी तो आवाज उठाकर बोल पड़ती थी, 'उससे रोगी और भी घबरा जाता है, समझी माँ? घर भर के लोग अगर "हाँ रे, बेचारा करते रहे तो सोचेगा, न जाने मुझे कितनी बड़ी बीमारी लग गई।'

उनकी बातों में तर्क नहीं-ऐसा सुलेखा नहीं कह सकती है। इसीलिए चुप हो जाती है। जब तक मुन्ने का बुखार नहीं उतरता, वह बाल सँवारना भूल जाती है। खाना गले से नीचे नहीं उतरता है।

मगर लड़का भी तो नाराज होने से बाज नहीं आता। सुलेखा के हाथ को झटके से हटाकर कहता है, 'ओह, क्या बार-बार देख रही हो? हर पल बुखार बढ़ता-घटता है क्या?'

सुलेखा अपने उस छोटे बेटे के आगे भी संकुचित हो जाती है, क्योंकि सुलेखा में जिस बात की अत्यंत कमी है, उन सभी में वह कूट-कूटकर भरी है।

पिता की तरह ही व्यक्तित्व-संपन्न हैं वे।

धीरे-धीरे सुलेखा उस तरह की बातें करना भी छोड़ देती है; मगर उनके जैसी कठोर व्यक्तित्व-संपन्न न भी सही, सुलेखा के भीतर क्या शक्ति नहीं है? दृढ़ता नहीं है? निश्चयता नहीं है?

इस परिवार के छह सदस्यों के कठोर व्यक्तित्व के दबाव को सहन करती आ रही है, यही कम शक्ति का परिचय है क्या? उसका स्थिर संकल्प, सारी प्रतिकूल अवस्थाओं से लड़कर जीतने का निश्चय क्या उसकी दृढ़ता के साक्षी नहीं हैं? किसी भी कष्ट को कष्ट नहीं मानूँगी, क्या सुलेखा की यह छवि उनके दृढ़ निश्चय का ही परिचारक नहीं बनती?

सुलेखा भी मोम की गुड़िया नहीं है। केवल उसका दृष्टिकोण उन लोगों से भिन्न है, भिन्न है उसका मानसिक गठन।

सुलेखा सोचती है--किसी की नौकरी नहीं, किसी की धौंस नहीं, घर बैठकर, गृहस्थी सँभालकर भी अगर दो पैसे कमा सकूँ तो इसमें शर्म कैसी?

मगर सुलेखा के इस तरह पैसे लेकर सिलाई करने पर उसके पति पुत्र-कन्या सभी शर्मिंदगी महसूस करते हैं।

सिलाई की मशीन को चलाए जा रही थी पूरी ताकत लगाकर, कंधा दुख रहा था। ऐसा लग रहा था कि पहिए की गति के साथ हाथ अपने आप घूम रहा है, अलग होते ही छूटकर गिर जाएगा।

अचानक बड़ी बेटी ईरा की उदास-थकी आवाज बगलवाले कमरे से आई, "माँ ! तीन दिन बाद ही मेरी परीक्षा है।"

सुलेखा चौंक उठी।

उसकी मशीन की 'घर-घर' आवाज से ईरा की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है, यह उसे पता भी नहीं था। दोनों कमरे के बीचवाले दरवाजे को अच्छी तरह बंद करके ही तो बैठी थीं काम पर।

दीपक अभी तक सैर से लौटा नहीं था, नीरा गिटार सीखने गई थी, दीपांकर छतवाले कमरे में, छोटी बेटी तिन्नी भी उसी कमरे में बैठकर पढ़ाई करती है। उन लोगों की पढ़ाई-लिखाई की दुनिया में सुलेखा के लिए कोई जगह नहीं है। वह दुनिया सुलेखा के लिए धुंधली-सी है। भुलक्कड़ सुलेखा ने किसी जमाने में जो कुछ पढ़ा भी था, सब भूल चुकी है। अब तो बिजली का बिल भी आता है तो किसी के आगे बढ़ाकर कहती है, 'देख तो, इस महीने में कितना हुआ?' डॉक्टर प्रेस्क्रिप्सन लिख जाता है तो दिखाकर पूछती है, 'देख तो, कौन सी दवा कब खाने को कहा है?'

जबकि इतना भी नहीं पढ़ सकती, ऐसी बात नहीं है।

बस, ऐसी आदत बना ली है, या बुरी आदत जैसे पढ़ने-लिखने का अधिकार बस उन्हीं को हो।

सुलेखा के नसीब में तो केवल धोबी का हिसाब या बाजार का हिसाब लिखना भर है। इन दोनों की जिम्मेदारी उसके पढ़े-लिखे बच्चे लेने को राजी नहीं हैं। इसलिए नहीं कि यह भारी जिम्मेदारी है, इसलिए कि यह तुच्छ है।

सुलेखा ने कभी परीक्षा नहीं दी; क्योंकि उसके जीवन में उसकी पहली परीक्षा की फीस भरने के लिए रुपए नहीं मिले। इतनी मूल्यहीन है वह। शायद उसी मूल्यहीनता के संकोच से वह अंग्रेजी समाचार-पत्र को कभी पलटकर भी नहीं देखना चाहती है। शायद उसी संकोच से वह इसका लेखा-जोखा नहीं रखना चाहती है कि उसके कौन बच्चे कब किस क्लास में गए। बाहर से आकर अगर कोई पूछता तो बेझिझक पूछ लेती-'तेरा कौन सा क्लास चल रहा है, मुन्ना?' या 'तू किस 'इयर' में है, नीरा?'

मगर माँ की इसी मूर्खता पर वे लज्जित हैं। दोस्त के आ जाने से अगर माँ चौके में हो तो वे बड़े निश्चित होते हैं।

लड़के तो अपने दोस्तों को घर बुलाकर बैठाते भी नहीं। घंटों गली के मोड़ पर खड़े होकर गप्पें लड़ाते रहते हैं।

मगर बेटियाँ? उनकी सहेलियों की संख्या कम नहीं है, विशेषकर नीरा की।

सहेलियाँ आती तो नीरा झट से नीचे चौके में आकर कहती है, 'माँ, तीन कप चाय बन सकेगी?'

सुलेखा कहती, 'अरे, यह क्या, क्यों नहीं बन सकेगी भला! अभी बना देती हूँ।'

नीरा कहती है, 'बन जाने पर एक चम्मच गिराकर मुझे जता देना, मैं आकर ले जाऊँगी। थक-हारकर तुम्हें पहुँचाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ चाय ही देना, और कुछ नहीं।'

पहले दो-एक बार बेटी के प्रति ममतावश ही उसकी मनाही के बावजूद चम्मच का संकेत न भेजकर स्वयं ही ले गई। और केवल चाय न देकर कुछ जलपान भी दिया। पर उसने देखा कि नीरा इससे नाराज होती है।

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