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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

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मगर हो नहीं सका, हो नहीं सकता। झिझक होती है।

सोचती है--अगर बेटियाँ मजाक उड़ाएँ और सोचें, अरे, देखो, बुढ़ापे में माँ का शौक। या अगर सोचे-क्यों भाई! हमसे लेने को मना किया है क्या कि इस तरह की सस्ती चीजों को गालों पर मल रही है?

दोनों में से एक भी सहन नहीं होता। अत: जैसे चलता था, चलने लगा। खैर, हारमोनियम का सपना सुलेखा हमेशा से देखती रही है। सोचती है, फिर से उसपर रियाज करेगी।

सुलेखा के बच्चों को आश्चर्य होगा। कहेंगे, ओ माँ! तुम इतना सुंदर गाती हो! इतनी मीठी आवाज है तुम्हारी! कभी तो गाया नहीं । शायद कहेंगे-अच्छा, एक और गाओ तो।

सुलेखा गा देगी झटपट।

जो कुछ सीखा था उसने, याद है सब । आजकल जो देखती है, बड़े बड़े गायक कलाकार भी गाने की किताब या कॉपी खोलकर बैठते हैं। इतनी राग-रागिनियाँ याद रखते हैं और दो गाने याद नहीं रख सकते!

मगर सुलेखा? अपनी कुमारी अवस्था में सीखे गाने आज भी सुना सकती है।

जब कोई घर पर नहीं होता है तब सुलेखा गुनगुनाती है अनगिनत रवींद्र सगीत। कितने गीत याद थे उसे, आज भी हैं।

यही एक बचपना सुलेखा को छोड़ता नहीं। बस, केवल उनके बड़े हो जाने का इंतजार है।

पाँचों बच्चों को लगभग एक ही साथ पाला है उसने । शायद इसीलिए उन्हें अलग-अलग कर नहीं देखती है। बच्चों का अर्थ ही है 'वे' तो क्या सुलेखा के बच्चे बड़े नहीं हुए? किसी को भी तो अब नहलाना नहीं पड़ता, कपड़े पहनाना, खिला देना नहीं पड़ता है? गिर जाने के डर से हमेशा सजग रहना भी तो नहीं पड़ता है, तो फिर?

हाँ, उनकी चीजें खो जाने पर ढूँढ़ देनी पड़ती हैं। और ऐसा तो हरदम होता रहता है। केवल छोटे बेटे को छोड़कर सभी की चीजें इधर-उधर हो जाती हैं। छोटा बेटा दीपक सँभालकर रखता है अपनी चीजें, मगर बाकी चारों नहीं।

परंतु उससे क्या? सुलेखा तो आदी हो गई है उसकी।

ईरा जब तीखे स्वर में 'मेरा पेन कहाँ गया? जरूर माँ धोबी का हिसाब लिखने के लिए ले गई हैं' कहकर हंगामा कर देती है तब सुलेखा नीचे से आकर ईरा की ही पढ़ाई की मेज पर से उसे निकालकर उसके हाथ में थमा देती है-बिना कुछ कहे ही। पहले फिर भी सुना देती थी, 'अरी, आसमान की ओर मुँह करके चलती है ! कॉपी-किताव जरा हटाकर देखेगी तब तो। खुद ही रखकर हंगामा किए जा रही है।'

अब नहीं कहती है।

कहने की हिम्मत नहीं होती है; क्योंकि सुलेखा के बच्चे बड़े हो गए है। उन्हें बातें सहन नहीं होती।

हालाँकि सुलेखा की यह चुप्पी भी उन्हें विशेष पसंद है, ऐसी बात नहीं। कम-से-कम ईरा को तो नहीं। वह इस चुप्पी से अपमानित महसूस करती है। तमतमाए चेहरे से बोल उठती है, 'तुमसे तो नहीं कहा था कि नीचे से भागकर आ जाओ पेन खोजने के लिए।'

सुलेखा के पास जवाब होता तो भी वह बड़ी नरमी के साथ कहती है, 'कॉलेज जाने के समय तुझे देर हो रही है।'

सुलेखा की छोटी बेटी को अपना ब्लाउज-पेटीकोट कभी नहीं मिलता है। सुलेखा छत से सारे कपड़े लाकर तह करके रखती है, उसके कपड़े भी रखती है; मगर वह पूरा घर अस्त-व्यस्त करती फिरती है।

जब सिलाई का काम अधिक रहता है तो वहीं बैठे-बैठे सुलेखा कहती है, 'देख न ठीक से, उसी ढेर में रखा है।'

तिन्नी उस ढेर को बिखराकर हट जाती है और नाराज होकर कहती है, 'कैसे पता चलेगा कि मेरे ही कपड़े सबसे नीचे पड़े हैं।'

लड़के ढीले-ढाले स्वभाव के हों तो सहन होता है। लड़कियाँ ऐसी हों तो सहन नहीं होता। फिर भी सुलेखा ने कोशिश करके सहने की आदत डाल ही ली है।

कोई आज की बात तो नहीं।

जब दुलहन बनकर आई थी तब सारे अन्याय सहन ही तो कर लेती थी। बड़ी जेठानी कहती थीं, 'जमाना कुछ बदला नहीं री सुलेखा, सब वैसा ही है। तीखे स्वभाव की सास के आगे बहू हाथ जोड़े खड़ी रहेगी, यही सदा की रीति है। पहले जमाने में फिर भी कहा जाता था, 'कुटनी सास है'। अब तो ऐसी असभ्य भाषा का प्रयोग भी नहीं किया जाता है।'

बड़ी जेठानी दया-ममता दिखाती थीं, दुर्भाग्य से वह भी दूर चली गईं।

उसके बाद तो सुलेखा भी जीवन का लंबा रास्ता पार कर आई। अब बड़ी जेठानी कलकत्ता आने पर अपने मायके में ठहरती हैं। सुलेखा कभी

एक दिन खाने पर बुला लेती है। कुटुंब की तरह ही खातिरदारी करती है। किसी जमाने में मछली का एक टुकड़ा भी दोनों बाँटकर खाया करती थीं, यह बात दोनों भूल चुकी हैं।

मगर बड़ी जेठानी का वह उपदेश सुलेखा भूली नहीं। गूंगे का कोई दुश्मन नहीं होता, समझी सुलेखा! कोई कुछ भी कहे, चुपचाप सह लेना। देखना-उसी से घर में शांति रहेगी।

कहती थीं-इस दुनिया में मजे की बात क्या है, पता है? भीतर रखो तो गुण, बाहर निकालो तो खून। दिल में चाहे जितनी भी शिकायत और नफरत कुलबुलाएँ, उन्हें बाहर निकलने मत देना। तभी तू अच्छी बहू कहलाएगी।

खैर, 'अच्छी बहू' तो बनी रही, परंतु जब बहू से गृहिणी बनने का जमाना आया, तब?

तब भी तो सुलेखा ने यही देखा कि जेठानी के उपदेश को मानकर चलना ही ठीक है; क्योंकि इतने दिनों में सुलेखा के बच्चे बड़े हो गए हैं। बचपन से जिस माँ को उन लोगों ने सबकुछ चुपचाप सह लेते देखा, अचानक उसे आवाज उठाते देखकर चौंक जाएँगे, दुःखी होंगे, क्रोधित होंगे।

क्रोध करने की आदत ईरा में कुछ अधिक ही है; पर उसके क्रोध जतलाने का ढंग एक तरह से शांत है। उस शांत भंगिमा के पीछे जितनी कठोरता छिपी होती है, शायद उसे स्वयं भी नहीं पता। इस कठोरता को ही ये लोग आधुनिकता समझते हैं। ममता का प्रकाश इनकी दृष्टि में सस्ती भावुकता है।

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