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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

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आधुनिक युग के बच्चे सपने देखना नहीं जानते, कविता पढ़ना पसंद नहीं करते। तभी तो दुनिया से प्यार नहीं कर पाते। इस सुंदर धरा पर किशोरावस्था के निश्चित आनंदमय जीवन में डगर भरकर भी ये कहते हैं, 'धत् ! अच्छा नहीं लगता।'

सुलेखा के मन में ऐसी प्रसन्नता की कभी कमी नहीं थी।

जब छोटी थी तो किताबों के नशे में विभोर रहती थी। कुछ दिनों बाद जब पराए घर में गई तो आत्मीय जनों की सराहना, उसके गुणों का समादर सुलेखा के मन को प्रसन्न कर देता था। और प्रसन्न होती थी उसे देखकर।

आज देखकर कोई कह सकेगा कि वह गंजे सिरवाला डित्पैपटिक आदमी एक दिन जोशीला नौजवान था?

सुलेखा की इच्छा-अनिच्छा, पसंद-नापसंद सब बह जाती थी उस नवयुवक के जोशीले आदेश में, जिसके लिए बुजुर्गों के कितने ताने सहने पड़ते थे उसे।

सुलेखा मन-ही-मन क्षुब्ध होकर कहती, 'क्या बात है? तुम्हारा ही बेटा बेशर्मी करेगा, आगे-पीछे बिना सोचे पत्नी पर प्यार जताएगा और तुम खरी-खोटी सुनाओगी बहू को ही?'

मगर उसमें भी तो एक गौरवमय नशा था। थी एक सुखद अनुभूति।

निशीथ के आवेगमय प्यार के ही परिणाम थे आठ साल में पाँच बच्चे। ऐसा नहीं कि उस जमाने में यह कोई अनोखी बात थी। सुलेखा की एक चचिया सास ने ही तो प्रतिवर्ष पति के परिवार को एक सदस्य चंदे में देकर चंदे के खाते में सोलह 'एंट्री' की थीं। फिर भी सुलेखा को ताने सुनने ही पड़ते थे।

कोई कहता, 'आजकल की बहुएँ तो होशियार हो गई हैं। यही अनाड़ी रह गई।'

गनीमत है, पाँच के बाद फुलस्टॉप लग गया। सावधानी की वजह से नहीं, प्रकृति की कृपा से। सारे ही छोटे बच्चे एक तरह से दूध-पीते बच्चे थे। उन सबको सँभालना-सँवारना पड़ता था। सास कहती थीं, 'बहू से अब क्या काम लेना? चौबीस घंटे तो अपने ही बच्चों को लेकर मस्त है।'

यह सच नहीं था। जिस तरह ब्याह से पहले हाथों में किताब देखते ही चाची समझ लेती थीं-इससे अब क्या काम होगा वैसे ही अब इतने सारे बच्चों में घिरी सुलेखा को देखकर लोगों को लगता-ये क्या कर सकेगी, इतने सारे बच्चे।

तब सुलेखा मन-ही-मन यही प्रार्थना करती थी कि ये जल्दी से बडेर हो जाएँ।

कभी अनजाने में किसी देवता से पूछती थी, 'ये कब बड़े होंगे?'

तब कहानी-उपन्यास नहीं, प्रख्यात लेखक या लेखिका का नाम भी नहीं, ध्यान था केवल उनपर।

उन्हें पालकर बड़ा करना होगा।

जैसे सुलेखा के जीवन की सारी सफलता उन्हें बड़ा कर लेने में ही है। जैसे उनका वह 'बड़ा हो जाना' किसी स्वर्गीय वृक्ष का एक सुंदर पका हुआ फल है, जिसके हाथ लगते ही सुलेखा सबकुछ पा लेगी।

तब तो थकावट लगते ही सुलेखा हाथ-पाँव पसारकर सो सकेगी। जब मरजी होगी, वह घूमने जा सकेगी, पसंद लायक कोई कहानी की किताब ही पढ़ सकेगी और खाट के नीचे से अपने पुराने हारमोनियम को निकालकर धूल झाड़कर उसे ठीक कर सकेगी। धूल झाड़कर साफ करेगी हारमोनियम को और अपनी आवाज को भी।

संगीत सीखने का सुअवसर सुलेखा के जीवन में नहीं आया। इतना मूल्यवान् सुलेखा का जीवन नहीं था। फिर भी, बचपन से ब्याह के पहले तक इसी बाजे पर हाथ जमा चुकी थी थोड़ा-बहुत।

हारमोनियम सुलेखा के पिता का था। शौकीन आदमी थे, संगीत-चर्चा किया करते थे। जब सुलेखा एक छोटी बच्ची थी तब उसे गोद में बिठाकर 'सा-रे-गा-मा' सिखाते थे। वह शौक रह गया था बराबर । माँ भी कहती थीं, 'अपने आप ही जितना हो सके, कोशिश कर। तेरे पिता की इच्छा थी कि तुझे गायिका बनाएँगे।' सुलेखा स्वयं ही कोशिश में लगी रहती थी।

खैर, चाचा-चाची इस बात पर नाराज नहीं होते थे; बल्कि कहते थे, 'आवाज में मिठास है । रेडियो-वेडियो से दो-चार गाने सीख ले तो शादी के समय काम आएगा।'

सो, सुनकर सीख लेने की कला सुलेखा को अच्छी तरह ही आती थी।

शादी के बाद बात कुछ जमी नहीं। एक तो पुरानी चीज मानकर संकोच के कारण शादी के समय माँ ने हारमोनियम दिया नहीं। दिया भी तो बड़ी देर से। तब तक रखा-रखा ही खराब होने लगा था।

निशीथ की खुशामद करते-करते वह हारमोनियम जब बनकर आया, सुलेखा गाने की स्थिति में नहीं थी। बड़े बेटे दीपक का जन्म हुआ था। इसके अलावा घर में कितने सारे लागे थे-सास, ननद, जेठ-जेठानी। देवरानी भी आ गई थी।

उसके बाद का क्या?

बच्चे का झूला आया तो जगह की कमी हो गई। हारमोनियम को खाट के नीचे भेज देना पड़ा। और जैसा होता है, नजर से बाहर तो ध्यान से बाहर । नजर के सामने रहने से इस तरह थोड़े समय में भी हाथ चलाया जा सकता था, नजर से ओझल हो जाने पर वह संभव ही कहाँ था?

निकालने के लिए झुकना भी तो पड़ता था-केवल शरीर से नहीं, मन से भी।

हारमोनियम निकालते ही निशीथ कहता था, 'बस, अब हो गया शुरू! अब तो बेटे की भूख-प्यास सब भूल जाओगी।'

केवल एक दिन ऐसी गलती हो गई थी। फिर भी इसका उल्लेख करने से निशीथ चूकता नहीं था कभी भी।

उसके बाद तो सुलेखा के पास समय ही नहीं रहा, शौक भी जाता रहा। हालाँकि अब सुलेखा की गृहस्थी अपनी ही है। जेठजी का तबादला हो गया और सास भी चल बसी। छोटी देवरानी अलग हो गई। ननद तो कब की ब्याहकर अपने घर चली गई।

फिर भी मन के भीतर वह इच्छा बड़ी कुंठा के साथ जीवित रह गई, गौरव के साथ नहीं। अब तो सुलेखा केवल यही सोचती है कि जब उसके बच्चे बड़े हो जाएँगे-अर्थात् जब सुलेखा के जीवन के छुट्टी के दिन आएँगे तब वह खाट के नीचे से उस हारमोनियम को खींचकर निकालेगी।

बच्चों की तरह इस सपने में विभोर रहती है सुलेखा-सब्जी काटते हुए, मसाला पीसते हुए या खाना पकाते हुए।

दोपहर में जब कोई घर पर नहीं होगा तब धीरे से उसे बाहर निकालेगी। झाड़-पोंछकर रियाज कर लेगी। और जब बच्चे आकर पूछेगे, 'अरे, इसे किसने निकाला?' तब सुलेखा मुसकराकर कहेगी, 'बताओ तो सही, किसने निकाला?'

वे अनजान की तरह कहेंगे, 'क्या पता तुमने ही शायद खाट के नीचे की सफाई की होगी। सुलेखा हँस-हँसकर कहेगी, 'खाट के नीचे की नहीं, तेरी माँ के गले की, गले में बरसों का जंग लगा था। सोचा, साफ कर लूँ।'

अपने बारे में बात करते समय ऐसे ही अनादर का रुख अपनाती है सुलेखा। जैसे सुलेखा के लिए सबकुछ अनधिकार चर्चा है। इसीलिए तो कभी अगर सुलेखा को किसी शादी-ब्याह के घर जाने के लिए थोड़ा सजना-सँवरना पड़ता है तो बेटियों के पास जाकर कहती है-'अपने डिब्बे डिब्बी दे तो चेहरे पर थोड़ी लीपा-पोती कर लूँ। आखिर शादी का घर है।'

मगर ऐसा तो नहीं कि सुलेखा कभी सजना ही नहीं चाहती। ऐसा भी सोचती है। कभी-कभी अपने लिए उनके जैसे कीमती न सही, एक पाउडर, स्नो और क्रीम खरीदकर रख ले। तब तो उनके दरवाजे पर आकर खड़ा होना नहीं पड़ेगा।

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