नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए वे बड़े हो गएआशापूर्णा देवी
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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...
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क्या सुलेखा वह उपहार भी लौटा दे? ऐसा वह नहीं कर सकती है। उसके भीतर भी तो ममता का समुद्र है। उस सदा नीरस, प्रभुत्व जतानेवाले ममताहीन आदमी के प्रति भी तो सुलेखा की ममता का अंत नहीं है। अपने बच्चे उसके आगे हाथ जोड़कर नहीं रहते और जिस बात से उसे दुःख भी पहुँचता है, उस निशीथ के लिए भी तो सुलेखा के मन में ममता का अंत नहीं है।
अभी सुलेखा ने अपनी बड़ी बेटी ईरा के कथन को ममता के साथ सुना। स्नेह-सरस स्वर में बोली, "अभी तो ऐसा कह रही है। शायद एक दिन तू भी परायी हो जाएगी।"
ईरा दृढ़ स्वर में बोली, "माँ, परायी वह खुद नहीं होना चाहती थी, तुमने ही कर दिया। तुम लोगों ने ऐसा बरताव किया, जैसे उसने कोई जघन्य नीच काम किया हो। बच्चे बड़े हो रहे हैं, यह शायद तुम लोगों से सहन नहीं होता है? क्या वे बड़े नहीं होंगे? एक परिपूर्ण व्यक्ति नहीं बनेंगे? कोई नहीं बनना चाहे तो उसकी बात और है, मगर जो बनना चाहे तो उसे उसकी बुद्धि-विवेचना, इच्छा-अनिच्छा का प्रयोग नहीं करने देंगे? तुम खुद भी एक वर ढूँढ़कर उसी के घर बेटी को भेज देती या नहीं? तब तो ऐसा मातम नहीं मनाती? फिर? उसने खुद ढूँढ़ लिया, यही तो अंतर है। उससे इतना तड़पने क्यों लगीं? खुद भी तड़प रही हो, उसे भी तड़पा रही हो।"
ऐसा नहीं कि बहन-स्नेह से ओत-प्रोत होकर ही ईरा ने इतनी बात कही। वह तो हमेशा ही नीरा की समालोचक रही है। शायद थोड़ी ईर्ष्या भी करती है, क्योंकि वह नीरा की तरह हर बात में उतनी चुस्त नहीं है। नीरा परीक्षा के एक दिन पहले सिनेमा देखने जाती है, पार्टी में जाती है। वह सिलाई-बुनाई में पारंगत है, संगीत-वाद्य में रुचि लेती है, गप्पें लड़ाती है। फिर भी रिजल्ट अच्छा लाती है।
तभी तो ईरा बहन को 'चालू' कहती है। कहती है, मस्तानी, अकड़बाज, घमंडी।
मगर आज ईरा ने उसके बहाने अपने ही विचार व्यक्त किए, "इक्कीस वर्ष की एक लड़की ने प्रेम किया है तो क्या हो गया? इसमें इतना दुःखी होने का क्या अर्थ है भला?"
सुलेखा धीरे से साँस छोड़कर बोली, "मुझे खुद इतनी परेशानी नहीं है, तेरे बाबूजी के डर से ही."
"डर, डर, डर! हमेशा तुम डरती ही रहीं। इतना डर किस काम का-समझ में नहीं आता है। इसी 'डर' की भेंट चढ़ा-चढ़ाकर तुमने बाबूजी की आदत इतनी खराब कर दी है। क्यों? क्या बाबूजी इस दुनिया में घूमते फिरते नहीं हैं? देखते नहीं, इस युग में क्या हो रहा है, क्या नहीं?" ईरा ने जोर देकर यह सब कहा।
मगर सुलेखा के लिए यह कोई नई बात तो नहीं। सुलेखा तो दिन-रात यही कह रही है कि यह बात और है, किसी को सुनाई नहीं देता।
फिर भी इस डर से वह छुटकारा पा सकेगी क्या? डर तो उसकी नस नस में बस गया है।
और फिर मन-ही-मन हँसने लगी सुलेखा-अभी कह रही है; मगर माँ कभी अचानक निडर हो जाए, लापरवाह हो जाए, क्या तुझे ही सहन होगा?
सुलेखा से यह सब नहीं होगा। उसे तो अपने घर में थोड़ी सी शांति चाहिए, जिसका मोल चुकाने के लिए वह अपना सबकुछ दे चुकी है।
धीरे से सुलेखा बोली, "आजीवन का अभ्यास है। हमारे बचपन में यही सिखाया जाता था, भय से ही जय मिलती है । वही उपदेश हाड़-मांस में बस गया है। खैर, जाने दे यह बात । तू कह रही थी, कंगन और बनारसी साड़ी नीरा नहीं लेगी?"
"मुझे तो यही लगता है। कहकर देख सकती हो।"
सुलेखा काँप उठी। "मैं ! मैं कहकर देखें? अगर मुंह पर ना कह दे तो?"
"तो फिर इतने झंझट की क्या जरूरत है? बाद में गुस्सा ठंडा हो जाए तो जो चाहे करना।"
सारी बातों पर परदा गिराकर, ईरा ने किताब खोलकर अपना चेहरा ढक लिया। काफी समय नष्ट हो गया उसका।
हालाँकि इधर कुछ दिनों से वह भी पढ़ाई में मन नहीं लगा पा रही है। घर में ऐसी घुटन है जैसे किसी की साँस अटकी हुई हो।
खाने की मेज पर माँ को चिढ़ाना, पकवानों का चिट्ठा सुनाना-यह सब थम गया है। बाबूजी पहले ही खा लेते हैं-साढ़े नौ बजे। भैया भी अपनी मरजी से चलते हैं। सभी चुपचाप हैं।
देख-सुनकर तिन्नी भी मुरझाकर कैसी हो गई है। उसकी प्रेम-कहानी को ईरा कौतुक की दृष्टि से ही देख रही थी, लड़के को भी देखा था। उम्र में उससे केवल दो साल बड़ा था। उसका शर्मीला अंदाज, ईरा को देखते ही प्रणाम करना, ईरा को बड़ा मजा आता है।
उसे समझ में नहीं आता है, इनकी खुशी के रास्ते में रोड़े अटकाकर उसकी गति रुद्ध करने से क्या लाभ है। क्या दबाने से ही दब जाएगा? विद्रोह का रूप लेकर फूट पड़ेगा?
सब बकवास है। घर का माहौल ही ऐसा है।
ईरा कभी यह नहीं सोचती कि ये लड़कियाँ क्यों प्रेमजाल में फंस गईं; बल्कि सोचती है-बड़ों का यह अड़ियलपन क्यों?
ईरा का मन उदास हो गया। थोड़े दिनों के बाद नीरा उसके पासवाली खाट पर नहीं सोएगी, और कभी नहीं।
कितनी तुच्छ बातों को लेकर नीरा से लड़ाई की उसने, तर्क किया। अब वही सब वेदना बनकर सामने आ रही है। उस तुच्छता पर शर्म आ रही है उसे; मगर कभी-कभी ऐसा भी लग रहा है कि नीरा उसे हराकर आगे निकल गई। चाहे कितना भी यह सोचकर संतोष करने की चेष्टा करे कि मैं तो घर में अशांति का कारण नहीं बनी, फिर भी कभी-कभी अपने को हीन महसूस करती रही है वह।
घर में सन्नाटा छाया हुआ है। खाने की मेज पर जूं तक नहीं सुनाई देती। फिर भी पता नहीं क्यों, सुलेखा को आजकल सारे अच्छे-अच्छे पकवान बनाने की सूझ रही है। उसकी इस विचित्र मनोदशा का रहस्य किसी की समझ में नहीं आ रहा है।
पता नहीं क्यों, आजकल सुलेखा को रोटी सेंकने की बजाय गरम भात पकाना आसान लग रहा है और सिलाई का काम हलका हो जाने के कारण शाम को कुछ-न-कुछ नाश्ता बनाने का समय मिल जाता है। केवल समय ही नहीं मिलता, इच्छा भी होती है।
सुलेखा की यह विचित्र इच्छा उनके बच्चों में खुशी से अधिक नाराजगी ही पैदा कर रही है, यह सुलेखा को जैसे पता ही नहीं चलता है। मानो उसे सुनाई ही नहीं पड़ता है, जब तिन्नी ईरा से कहती है, "देख रही है दीदी, अभी जब नीरा दीदी को खाना, नहीं खाना एक-सा लग रहा है, क्या खा रही है-नजर उठाकर भी नहीं देखती। अब ऐसे में माँ को भात बनाना ही आसान लग रहा है। अहा, बेचारी नीरा दीदी ने कितनी बार भात की रट लगाई होगी। रोटी तो उससे खाई ही नहीं जाती थी।"
सुलेखा को जैसे तब सुनाई ही नहीं पड़ता, जब नीरा तिन्नी को बुलाकर कहती है, "तिन्नी, और मछली चाहिए तो मेरी थाली से उठा ले। इतनी सारी मछली देने का क्या अर्थ है, पता नहीं।" यह भी नहीं सुन पाती कि ईरा बेजार आवाज में कहती है, "आजकल घर में खर्चा-बर्चा इतना कैसे बढ़ा दिया गया, समझ में नहीं आता है।"
अच्छा, मान लिया जाए कि सुलेखा आजकल कुछ कम सुन रही है, पीछे लोग क्या कहते हैं, सुन नहीं पाती; मगर क्या दिखाई भी नहीं देता कि किस प्रकार ऊपरी मन से आधा खाकर उठ जाते हैं वे सब? भाई-बहनों में इतनी एकता थी, इतना प्यार था, पहले कभी देखा था सुलेखा ने?
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