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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

23

जैसा सोचकर गई थी सुलेखा वैसा कुछ भी हुआ नहीं। उसकी इच्छा थी कि शादी से पहले एक दिन लड़के को देख ले, उसका परिचय ले, नीरा को लेकर कहाँ ठहरेगा-उसकी जानकारी ले।।

क्योंकि सुलेखा निशीथ की मिट्टी की नहीं बनी थी। वह मान लेने की शिक्षा में ही अभ्यस्त थी।

चली आई सुलेखा। आँसुओं से उसका तकिया भीगने लगा। न जाने कब से इन बेटियों की शादी के सपने में विभोर रही है वह । क्या देगी? कौन-कौन से गहने बनवाएगी? कैसे सजाकर ब्याह करेगी उनका ' किस तरह समिति से कुछ और काम लेकर और पैसे इकट्ठा करेगी, ताकि निशीथ जो कुछ भी दे उसके अतिरिक्त वह भी कुछ कर सके। ऐसे ही सुखद सपने में डूबी रहती थी वह।

और सोचती थी कि इन लोगों की पढ़ाई और परीक्षाओं का तो जैसे अंत ही नहीं, कब आएगा वह शुभ दिन?

वह दिन आ गया, पर इस प्रकार कि किसी ने सोचा नहीं था। और भी क्या आएगा, पता नहीं।

मगर उसके बच्चे तो यही जानेंगे कि माँ निष्ठुर है, संस्कारहीन है, प्राचीनपंथी है।

मगर क्या सचमुच ही सुलेखा कुछ नहीं कर सकती है? वह निशीथ से बात करेगी। दिन में नहीं, रात में।

दिन में बात उनके कानों तक जाएगी। शायद परिणाम उलटा ही होगा। बदमिजाज निशीथ को तो होश नहीं रहता। अच्छा, उसके भीतर है क्या?

जो थोड़ी सी आदत बदल नहीं सकता, अपनी सुविधा की छोटी सी माँग को भी जो त्याग नहीं सकता, वह इतनी आसानी से एक संतान का त्याग कर पाएगा?

"एक वस्त्र में चले जाना होगा उसे।" रात के अकेलेपन में यह हुक्म जारी कर दिया निशीथ ने।

सुलेखा रोकर बोली, "जिंदगी भर के लिए वह लड़की घर छोड़कर चली जा रही है। दो नई साड़ी भी नहीं देंगे?"

"नहीं देंगे। बड़ा हीरो लड़का ढूँढ़ा है उसने। गरीब बाप से कपड़े लेकर क्या करेगी?"

मगर जरूरत बेटी को है क्या?

पति की नजर बचाकर सुलेखा दिन-रात सिलाई करती रही और समिति जाती रही। फिर एक दिन ईरा को बुलाकर बोली, "एक बार दुकान पर चलेगी, ईरा?"

दुकान-बाजार जाने के लिए हमेशा की साथी नीरा ही थी, क्योंकि इन बातों में होशियार थी वह; मगर वह तो अभी विपक्षी खेमे में बैठी है।

परीक्षा चल रही है उसकी, इसीलिए शायद यहाँ खाकर कृपा कर रही है और सोने का स्थान कहीं और निश्चित नहीं हुआ, इसलिए अभी भी रात में यहीं सो रही है। अतः ईरा की जरूरत है।

ईरा बोली, "जाकर क्या होगा? खरीदना भी क्या है? तिन्नी को क्यों नहीं ले जाती हो?"

"नहीं-नहीं, तिन्नी से काम नहीं चलेगा।"

उदास सुलेखा संकोच भरे स्वर में बोली, “बेटी, पुराने कपड़े पहने खाली हाथ बाप के घर से विदा होगी? चल, चुपके से एक बनारसी साड़ी खरीद लाते हैं और यह कंगन का जोड़ा पॉलिश करा लेते हैं।"

शायद ईरा को माँ का उदास चेहरा देखकर दया आई। धीरे से बोली, "क्यों परेशान होती हो, माँ? तुम्हारी अकड़बाज बेटी तुम लोगों का दिया हुआ कुछ भी नहीं लेगी।"

जो कभी नहीं होता है, वही आज हुआ। सुलेखा अचानक क्रोध से खौल उठी। बोली, "ओह! तो जिसे लेकर इतना अहंकार है, उस अपने आपको ले जा रही है या नहीं? जिस शिक्षा के बल पर इतनी हिम्मत हो गई है वह किसका दिया हुआ है?"

ईरा हँसकर बोली, "इसका चारा ही क्या? मगर तुम्हें भी सचेत कर देती हूँ, यह सब उसके सामने मत कह देना। हो सकता है, इतने दिनों के खिलाने-पिलाने और बड़ा करने का दाम अपने दूल्हे के पैसे से चुकाने लगेगी।"

शायद इतने बड़े आघात से ही सुलेखा को शक्ति मिल गई। बड़े ही शांत स्वर में बोली, "कब, किस तरह इतने पराए हो गए तुम सब?" .

"मुझे क्यों समेट रही हो?" हलके स्वर में ईरा बोली, "मैं तो परायी नहीं हो रही हूँ। मैं उतनी मूर्ख नहीं हूँ, जमकर बैठी रहूँगी, तुम लोग दुनिया ढूँढ़कर जमाई लाओगे। दान-दहेज समेत कन्यादान करोगे तथा जितना और हो सके, माँग-बटोरकर, तब कहीं मैं ससुराल जाऊँगी।"

शायद माँ को खुश करने के लिए ही मितभाषिणी ईरा अचानक इतनी बात कह गई। क्या माँ से वे सचमुच प्यार नहीं करते हैं? करते क्यों नहीं, मगर उस प्यार में मर्यादा से करुणा अधिक है। मोटी बुद्धिवाली सीधी-सादी माँ को वे एक बालिका का दरजा देते हैं कभी-कभी। उन्हें पता नहीं चलता है कि उस माँ के दिल में कितने तूफान उठते हैं, कितने विद्रोह मजबूरी के द्वार पर सिर पटकते हैं।

उन्हें तो लगता है कि माँ की दुनिया बस हलदी, पंचफोरन, राशन बाजार में ही सिमटी है।

मगर इसमें उनका दोष ही क्या? क्या सुलेखा ने कभी उस तूफान का पता चलने दिया? उस विद्रोह की जानकारी दी? बल्कि कहीं उन्हें पता न चल जाए, इसलिए बचकाने आचरण से उन्हें ढककर रखा।

इसीलिए वे कभी-कभी माँ को ममता दिखाते हैं।

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