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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

22

एक दिन सुलेखा ने बात छेड़ी, "जो होगा, देखा जाएगा-ऐसा ही सोचकर उसने कह डाला तो फिर रजिस्ट्री करके ही ब्याह क्यों करना? बेटी की शादी तो तुम्हें करनी ही पड़ती। बड़ी से पहले ही मझली की करनी होगी, यही न? ऐसा तो हो भी रहा है आजकल। कन्यादान करके ही शादी होनी चाहिए।"

निशीथ आगबबूला होकर बोला, "क्या कहा? साहा के बेटे के हाथ खुद बैठकर कन्यादान करेगा निशीथ मुखर्जी? जो कह लिया कह लिया, अब और आगे ऐसी बात जुबान पर मत लाना । अभी तक उसे घर से निकाल नहीं दिया-यही बहुत है। इसके बाद यहाँ उसका साया भी नहीं पड़ना चाहिए।"

निशीथ के पिता के जमाने का यह घर काफी बड़ा है, बड़े परिवार के हिसाब से बना है। बरामदा भी विशाल है। फिर भी बरामदे के उस पार के कमरे से नीरा को सुनाई पड़ा।

कमरे से निकलकर माँ-बाप के सामने खड़ी होकर वह कह गई, "बाबूजी का आदेश याद रखूगो, माँ।"

सुलेखा अभिभूत-सी खड़ी रही। उसे समझ में नहीं आया कि उसकी यह बेटी कब इतनी बड़ी हो गई? सबकी पहुँच के बाहर? बहुत बड़ा न होने पर कहीं इतना नुकसान अनदेखा किया जा सकता है?

नुकसान का हिसाब नीरा नहीं करती है, सुलेखा ही करती है बैठे बैठे। अपने प्यार को पाने के लिए उसे सबकुछ त्याग देना पड़ेगा। माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नाते, इतने दिनों की जानी-पहचानी दुनिया-सबकुछ। फिर भी नीरा घबरा नहीं रही, उदास भी नहीं है।

भाई-बहनों के साथ वह हँसती है, बातें करती है, गाती भी है कभी कभी। केवल पिता के सामने गुमसुम रहती है और माँ के साथ मोटी बातों के अलावा और कुछ नहीं बोलती है।

सुलेखा ने निश्चय किया कि एक दिन सारा डर भूलकर सीधे पूछ लेगी नीरा से, 'नीरा, ऐसा क्या मिल गया तुझे कि इतना नुकसान तू सह लेगी?'

सुलेखा को उस 'मिल जाने' की खबर नहीं है।

उसे मालूम था कि ब्याह से पहले प्यार करना नीति-विरुद्ध है। मालूम था कि ब्याह होने पर पति से प्यार किया जाता है।

सुलेखा की बेटी उसकी सारी जानकारियों से बाहर निकल गई है। फिर सुलेखा उससे डरे नहीं तो क्या करे? फिर भी एक दिन हिम्मत करके उनके कमरे में जाकर बैठी।।

ईरा परीक्षा की तैयारी में लगी थी, नीरा खाट पर लेटी थी चुपचाप और तिन्नी एक तसवीर बनाने में मगन थी । इस बात में पारंगत है वह, जब-तब, जहाँ-तहाँ तसवीर बनाती रहती है। काठ पर, कपड़े पर, शीशे पर; मगर ये सब अगर घर आए मेहमानों को दिखाना चाहो तो तुनक जाएगी वह। कहेगी, "किसने कहा कि चित्रकला आती है? यह सब माँ की बकवास है। कुछ नहीं बनाया मैंने, सब फेंक दिया है।'

आज सुलेखा ने उसकी चित्रकला पर ध्यान नहीं दिया, केवल खाट पर जाकर बैठी।

नीरा ने पैर समेट लिये, तिन्नी ने अपना कागज धीरे से ढक लिया और ईरा बोली, "आज माँ को सिलाई नहीं करनी है?"

अकारण ही सुलेखा की आँखों में पानी आ गया, जबकि उसकी बड़ी बेटी ने यह बात सचमुच व्यंग्य में नहीं कही थी। माँ कमरे में आई, सब चुप रहेंगे? इसीलिए बस, कुछ भी बात करने के लिए ही

धीरे से सुलेखा बोली, "अब वह सब करके भी क्या होगा? सारी जरूरत तो खत्म होती जा रही है।"

कुछ सोचकर नीरा उठकर बैठी।

ईरा को शायद थोड़ी दया आई। वह चहचहा उठी, "सभी जरूरतें खत्म हो रही हैं, इसका मतलब? तुम्हारी यह बड़ी बेटी तो किसी बड़े गाछ से नाव बाँधने नहीं गई है, माँ।"

सुलेखा बोली, "जा ही सकती है।"

फिर नीरा की ओर देखकर बोली, "सभी को सबकुछ पता था, सिर्फ मुझे छोड़कर, जबकि मैं तेरी माँ हूँ, नीरा।" बोली, मगर खुद ही हैरान हो गई। इस तरह से कहना तो नहीं चाहती थी वह।

वह तो पूछने आई थी, 'नीरा, ऐसा क्या मिल गया, जिससे सारा नुकसान भर गया?'

सोचकर आई थी कुछ और कह दिया कुछ।

शायद माँ का उदास चेहरा देखकर नीरा को भी दया आई; मगर अपने प्रेम को अभिव्यक्त करना उसकी आदत नहीं। इस मामले में अपने पिता पर गई है वह। इसलिए अपने स्वाभाविक कठोर भाव से वह बोली, "तुम्हें बताने से क्या हो जाता?' खाट पर ही दोनों पैर आधे मोड़कर बैठी थी नीरा। पीठ झुकाकर अपनी ठुड्डी को दोनों घुटनों पर टिकाकर बैठी थी, इसलिए उसकी भंगिमा में नरमी थी।

मगर बातें कठोर क्यों?

फिर भी सुलेखा का मन ममता से भर गया। उसने सोचा-जितना भी ऊपर से बाप की तरह कठोर बनी रहे, तेरा कलेजा जल रहा है, यह मैं जान रही हूँ।

मगर मन की बात मन में ही रही। उसने कहा, "कहती तो शुरू से ही भला-बुरा समझा देती।" सुलेखा फिर चौंक गई। क्या कर रही है वह? क्या कहना था और क्या कह रही है? ऐसी बात सुनकर भी क्या नीरा व्यंग्य से हँस नहीं पड़ेगी?

हुआ भी ऐसा ही। हँस पड़ी नीरा। सुलेखा उनकी ऊँची दुनिया की खबर भले ही न समझ सके, वह सब समझती है। घुटने से चेहरा उठाकर हलके मुसकान भरे अंदाज में नीरा बोली, "भले-बुरे का होश नहीं रहता है, तभी तो लोग ऐसा करते हैं, माँ । अर्थात् कहने से कुछ लाभ नहीं होता।"

सुलेखा रूंधी आवाज में बोली, "तू किसके साथ चली जा रही है, कहाँ चली जा रही है, यह सब कुछ जानने का कोई अधिकार नहीं है हमें?"

सुलेखा के मुँह से 'अधिकार' की बात? बड़े आश्चर्य की बात।

मगर मुझे न कहकर 'हमें' कहकर बात को कुछ हद तक स्वाभाविक कर दिया था उसने।

नीरा गंभीर हो गई। बोली, "अधिकार नहीं है, ऐसा सोचना ही तो अस्वाभाविक है, माँ। तुम लोगों ने पूछा भी तो नहीं?"

"एक दिन पूछा था, तूने बताया ही नहीं।"

नीरा ने बात को टाल देने के विचार से कहा, "तब तो बात कुछ बढ़ी न थी, बेकार कहकर क्या लाभ होता? मगर अब भी सुनकर क्या होगा, माँ? तुम लोगों ने तो अपनी बहकी हुई बेटी को त्याग ही दिया है।"

अब ईरा बोली, "समझ में नहीं आता कि किस अतीत युग में अभी पड़े हो तुम लोग। ऐसी शादी किस परिवार में नहीं हो रही है आजकल? नीरा की ही एक सहेली है, किसी दास या घोष के बेटे के साथ चोरी-छिपे प्रेम किया और रजिस्ट्री भी कर ली। माँ-बाप को पता चला तो बाकायदा कार्ड छपवाकर गाजे-बाजे के साथ शादी कर दी। लड़की की सारी सहेलियाँ आईं, रिश्तेदार भी आए। यही ठीक है या बेटी से 'दूर हो जा, निकल जा' कहना ठीक है?" इससे क्या साबित होता है, बताओ? संतान के लिए स्नेह, ममता-यह सब बेकार बात है? दरअसल अपना अहंकार ही तुम्हारे लिए सबसे मुख्य है।"

सुलेखा सिर उठाकर बोली, "यह बात अपने पिता को सुना, ईरा । मुझे कोई आपत्ति नहीं है। तेरे पिता अगर उस दामाद को सिर-आँखों पर बिठाएँ तो मैं अपना कर्तव्य कर लूँगी।"

नीरा गुस्से में बोल उठी, "रहने दो, मेरे लिए किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं है। जो महापाप मैंने किया है, उसके लिए बाबूजी ने गरदन पकड़कर बाहर नहीं निकाल दिया, यही बड़ी कृपा है। और किसी कृपा करुणा की जरूरत नहीं है, माँ।"

सुलेखा उठकर बाहर आ गई।

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