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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

21

ममता के कारण? और नहीं तो क्या?

सुलेखा के मन में जो अपार ममता है, जो निशीथ जैसे कठोर, रूखे व्यक्ति के लिए भी हर पल संचित रहती है, उसे पता नहीं कहाँ से संगृहीत किया था सुलेखा ने।

अपने जीवन में उसे तो यह वस्तु इस प्रकार मिली न थी। लाचार चाची की गृहस्थी में रहकर माँ के दिल में जो थोड़ी-बहुत ममता थी भी, उसकी अभिव्यक्ति बहुत ही कम थी। बेटी के विषय में उनकी जो कुछ सचेतनता थी, उन्हें वह व्यक्त करना नहीं चाहती थी। शायद सोचती थी कि जब सुलेखा की सारी जिम्मेदारियाँ अपनी छोटी देवरानी को ही सौंप दी तो बाकी भी अपने जिम्मे क्यों रखे?

उठते-बैठते सुलेखा को यही सिखाया था उन्होंने, 'तुम्हारी कोई माँग नहीं है, होना उचित भी नहीं है।' यह शायद बचपन की वही शिक्षा है, जिससे सुलेखा के मन का ढाँचा ऐसा दीन-हीन हो गया है।

अब भी सुलेखा यही समझती है कि मेरी कोई अभिलाषा नहीं है, मेरी कोई माँग नहीं है. मेरा कोई अधिकार नहीं है।

और शायद जीवन में कभी किसी से ममता का स्वाद नहीं चखा उसने। इसीलिए उस अभाव की वेदना का अनुभव कर उतनी ममतामयी बन बैठी है।

अपनी विशेष जरूरतों के लिए थोड़े से रुपए बचाकर रखे थे उसने, वही लाकर बेटी के हाथ में दे दिया; मगर यह भी नहीं कहा कि इतने ही थे उसके पास। ऐसा लगा जैसे ढेर थे, उसमें से थोड़ा सा दे दिया, बस।

कहीं नीरा को लेने में संकोच न हो, इसलिए डिब्बा खाली होते हुए भी हिम्मत करके कह दिया, "देख बेटा, इतने से काम चलेगा या और चाहिए?"

नीरा अगर उस 'और' की माँग कर बैठती तो उसकी इज्जत कैसे बचती, ईश्वर ही जाने; मगर सौभाग्य से नीरा ने ऐसा नहीं कहा। बोली, "ठीक है, इसी से काम चल जाएगा।"

अपनी जरूरत को पीछे हटा दिया है सुलेखा ने। पीछे हटाते-हटाते शायद वह एक दिन धुंधली हो जाएगी।

और तिन्नी?

वह तो हाथ-पाँव मारकर हठ करती है। बराबर जो करती आ रही है, आज भी वही करती है। रोज ही तिन्नी फ्रॉक में खरोंच लगाकर आती है, कलम खोकर आती है। उसे एक जैसा टिफिन दो दिन अच्छा नहीं लगता है

और स्कूल में बिकनेवाले फुचके, चाट आदि खाने के लिए रोज पैसों की जरूरत पड़ती है।

तिन्नी स्कूल से आते ही शोर मचाती है, 'माँ, पता है, आज क्या हुआ? एक लड़की ने मेरी किताब लेकर।

यह दुलारी लड़की ही सुलेखा के दिल में बसती है, उसकी जान है। वह मन-ही-मन सोचती है कि तिन्नी बड़ी होगी तो सब ठीक हो जाएगा।

तिन्नी की माँगें पूरी करने में ही सुलेखा के जीवन की सरसता है।

उसका छोटा बेटा जन्म से ही वृद्ध है। उसकी प्रकृति क्या है-सुलेखा कभी समझ नहीं पाई। क्या वह शर्मीला है? क्या उम्र से अधिक परिपक्व है? गंभीर स्वभाव का है?

हालाँकि उसके भीतर ममता है, कर्तव्य-बोध भी है।

एक दिन सुलेखा को बुखार आया था। निशीथ से लेकर तिन्नी तक सभी अपने-अपने काम से निकल गए। उसे ढेर सारे उपदेश देकर सावधान कर गए, दवा भी दे गए। सिरहाने पर डाब, नारंगी आदि रखकर गए; मगर दफ्तर या स्कूल छोड़ने की बात किसी ने नहीं सोची सिवाय छोटे के। बस, वही छोटा बेटा घर बैठा रहा।

सुलेखा ने बार-बार कहा, "तू ही क्यों नागा करेगा, मुन्ना? सबकुछ तो रखा ही है मेरे पास।"

दीपंकर बोला, "नहीं, इसलिए नहीं। बस, यों ही।" "यों ही नागा करेगा?" उसे इतना आश्चर्य हुआ कि हैरान हुए बिना नहीं रह पाई।

मगर दीपंकर ज्यादा बोलना पसंद नहीं करता है, इसलिए तंग आ गया। बोला, "आज ज्यादा पढ़ाई नहीं है। तुम इतनी बात मत करो।"

कृतज्ञता व्यक्त करना भी उसे अच्छा नहीं लगता है। सुलेखा जब बोली, "तुझे मना जरूर किया था, मगर तेरे रहने से बड़ा आराम हुआ, मुन्ना। नहीं तो दाई और ग्वाले के आने पर दरवाजा खोल देने के लिए मुझे ही नीचे जाना पड़ता।"

तब दीपंकर ने कहा, "तुम बहुत ज्यादा बोलती हो, माँ। थोड़ा कम नहीं बोल सकती?"

"ये मेरे ससुरजी हैं।'' सुलेखा हँस-हँसकर कहती है, मगर समझ जाती है कि ऐसा मजाक उसे अच्छा नहीं लगता है; जबकि सुलेखा को पता भी नहीं चलता है कि उसके बच्चे उसके बारे में क्या टिप्पणियाँ करते हैं? नीरा तो अनायास ही कहती है, "हमारी माँ अगर मिट्टी की ऐसी गुड़िया न होकर बहुत क्रोधी स्वभाव की होती तो भी अच्छा था।"

ईरा कहती है, "नहीं रे, मिट्टी की गुड़िया नहीं, यह भी एक प्रकार का अहंकार है। मेरे लिए किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं, मैं सबके लिए करती रहूँगी। यह एक प्रकार का आत्म-प्रेम है।"

मगर सुलेखा तो शायद 'आत्म-प्रेम' शब्द का अर्थ ही नहीं जानती है।

जब सुलेखा सुंदर भविष्य की ओर देखकर सोचती है, ये कब बड़े हो जाएँगे, तो ये उससे बहुत पहले ही बड़े हो चुके होते हैं।

मगर इसका पता चला सबसे पहले नीरा के बारे में।

उस जोरदार घोषणा के बाद से नीरा ने और खुलकर मनमानी करनी शुरू कर दी, मानो उसे मुक्ति का स्वाद ही मिल गया।

ईरा से सुलेखा को पता चला कि नीरा का भावी पति अमीर लड़का है, किसी कॉलेज में पढ़ाता है। मगर उसके घरवालों की सहमति इस लव मैरेज में नहीं है, इसलिए अलग फ्लैट ले रहे हैं ये लोग। रजिस्ट्री के बाद वहीं जाकर ठहरेंगे कुछ दिनों के लिए।

सुलेखा ने थोड़ा सहमकर पूछा, "कुछ दिनों के लिए? और अगर वे लोग कभी न बुलाएँ तो?"

ईरा निश्चित भाव से बोली, "नहीं बुलाएँ तो बला से ! नीरा तुम्हारी होशियार बेटी है, बहुत देख-सुनकर ही प्रेम किया है उसने। लड़के की नानी के पास काफी जायदाद है, वह सब उसी को मिलेगा। नानी को कोई बेटा वेटा नहीं है।"

सुलेखा ने हैरान होकर सोचा-कितनी आसानी से हिसाब लगा लिया ईरा ने "मगर ये लोग रस्म-रिवाज मानकर ही शादी क्यों नहीं करते हैं?

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