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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

20

निशीथ चाहता है कि यह काम सुलेखा ही करे, क्योंकि उसके मान अपमान का बखेड़ा नहीं है । इसलिए वह तर्क देता है, बेटियों की खबरदारी माँ ही किया करती है।'

जैसे बाप या भाई नहीं करते हैं। सुलेखा इतना सब नहीं समझती है। उसे मालूम है कि हर व्यक्ति को समय पर उसकी जरूरतों की चीज पहुँचा देना ही सुलेखा के कर्तव्य का दायरा है।

समय के अनुसार स्कूल-कॉलेज और दफ्तर जानेवालों का भोजन तैयार रखना, जब जिसके आने का समय हो, उसके लिए नाश्ता तैयार रखना और सबकी पसंद का ध्यान रखना, यही उसकी जिम्मेदारी है। उसकी जिम्मेदारी है गरमी के मौसम में खाने के समय ठंडा पानी और जाड़ों में नहाने के लिए गरम पानी तैयार रखना, उसकी जिम्मेदारी है बरसात के मौसम में घर के सभी सदस्यों के गीले कपड़े, गंजी, तौलिए, मोजे, रूमाल आदि सुखाकर उन्हें उपलब्ध कराना और सबके मन की बात समझकर उनकी इच्छा-पूर्ति का इंतजाम करना।

इसके अतिरिक्त किसी जिम्मेदारी की चेतना मूर्ख सुलेखा को कभी नहीं हुई। पढ़ाई-लिखाई के बारे में निशीथ ने ध्यान दिया या बच्चों ने स्वयं ही सुलझा लिया। अच्छे नंबर भी लाते हैं वे।

मगर इसके लिए सुलेखा के मन में तो कोई अफसोस नहीं है? तो फिर आज अगर वे अपने जीवन की गुत्थियों को खुद सुलझाना चाहते हैं तो मन में ऐसा हाहाकार क्यों मच रहा है? और यह डर? डर से हाथ-पैर ठंडे हुए जा रहे हैं उसके । इसीलिए जब निशीथ ने कहा, "माँ दृढ़ स्वभाव की होती तो बेटियों की इतनी हिम्मत नहीं होती।" तो सुलेखा ने दबी आवाज में कहा, "पता नहीं चला। सुनाई देता तो पता चलता। बाप तो दृढ़ स्वभाव का है, उससे भी क्या फायदा हुआ?" ।

सुलेखा के सौभाग्य से परिस्थिति और जटिल होने से पहले ही नीरा आ खड़ी हुई और मूर्ख सुलेखा फिर अपनी भूमिका में वापस आ गई।

"क्यों री? सिनेमा जाना था, यह मुझे न बताकर मुन्ना को बता गई? उसने तो अभी बताया। मैं सोचकर पागल हो रही हूँ, ये नाराज हो रहे हैं।"

अचानक निशीथ ने डाँट लगाई, "किसने कहा कि मैं नाराज हूँ? किसी की मुझे कोई परवाह नहीं है। जिसकी जो मरजी हो, करे, बस। दो, मुझे खाना दे दो।"

नीरा कमरे में घुसने जा रही थी, अचानक कुछ सोचकर ठहर गई और माँ-बाप या किसी की ओर बिना देखे ही दीवार को सुनाकर बोली, "मेरे लिए अब और अधिक दिन सोचने की जरूरत नहीं पड़ेगी, यह बता ही देती हूँ तुम लोगों को। अगले महीने की उन्नीस तारीख को हम लोग रजिस्ट्री कर रहे हैं।"

सुलेखा के पाँव के नीचे से जमीन कहाँ खिसक गई? उसकी आँखों के आगे इतना धुआँ कहाँ से आ गया? क्या इसीलिए"? मेज का कोना पकड़कर उसे अपने आपको सँभालना पड़ा।

मगर कोई तलवार तो नहीं गिरी नीरा के सिर पर-न मनुष्य की, न विधाता की। एक निस्तब्धता छा गई।

थोड़ी ही देर बाद आराम से गरम भात और 'मटन करी' लेकर भाई बहनों के साथ खाने बैठ गई वह । अभी-अभी देखी हुई फिल्म के बारे में चर्चा भी करने लगी मजे में। नीरा की उस घोषणा के समय दीपक आया नहीं था, मगर सुलेखा को अचानक ऐसा लगा कि उन्हें सब मालूम है, वे सब समझते हैं।

केवल सुलेखा ही कुछ नहीं समझती, न जानती है।

सुलेखा तो उनके चेहरे को देखकर सिर्फ इतना ही समझ पाती है कि . उन्हें भूख लगी है। समझती है कि उन्हें पैसों की जरूरत है। और कुछ नहीं।

सुबह जाते समय दीपक बार-बार पैंट की जेब को टटोलकर कुछ ढूँढ़ रहा था तो सुलेखा ने स्वयं ही हँसकर कहा था, 'क्यों रे दीपू, जेबखर्च के पैसे उड़ गए क्या? कुछ ले ले।'

दस रुपए उसके हाथ पर धर दिए थे उसने।

'ओह माँ ! बच गया।' हँसकर दीपक ने कहा था, 'शर्म के मारे पितृदेव से कह नहीं पा रहा था.'

सुलेखा ने सोचा-उनसे सब डरते हैं, मेरे ही पास 'फ्री' हैं। वह कृतार्थ हो गई थी, विगलित हो गई थी।

बस, इतने से ही सुलेखा अपने बच्चों के प्रति कृतज्ञ हो जाती थी, तृप्त हो जाती थी कि वे माँ को ज्यादा अपना समझते हैं।

अकसर ही जब दीपक माँ के सामने अपनी जेब को झटके देता है और माँ इसे समझकर उसे कुछ रुपए दे देती है, तब दीपक के चेहरे पर जो निश्चित होने का भाव झलकता है, उसी को देखकर सुलेखा खुशी से बाग बाग हो उठती है। सौ गालियाँ खाकर भी सिलाई का काम करना तब सार्थक लगता है उसे।

हँस-हँसकर दीपक कहता है, 'तुम्हारे ये सब रुपए गोकुल में बढ़ रहे हैं, माँ । देखना, समय पूरा होते ही सूद समेत वापस आएँगे।'

सुलेखा भी हँसती है।

दीपक सुलेखा को एक बालिका की भाँति पीठ ठोककर प्यार जताता है। बेटियों में माँ के लिए जो अवहेलना का भाव है, दीपक में वह नहीं है, मानो वह माँ को 'अहा, बुद्धिहीन अबोध' मानकर दया करता हो। ... क्या सुलेखा इतना समझती नहीं?

समझकर भी इसका पूरा आनंद लेती है वह । कहती है, 'मेरे ताऊजी आ गए।'

जबकि बेटियाँ भी पैसों के मामले में माँ के पास ही आने के लिए मजबूर हैं।

ईरा कहती है, 'सारी साड़ियाँ एक ही साथ जवाब देने लगी हैं। माँ, जरा मुट्ठी खोलो तो सही। पिता ठाकुर ने तो सोच लिया है कि एक बार साड़ी खरीद लेने से जीवन में दूसरी बार नहीं खरीदनी पड़ती है।'

नीरा कहती, 'रोज-रोज एक ही ब्लाउज पहनकर कॉलेज नहीं जाया जाता। आज दो-तीन ब्लाउज खरीदने पड़ेंगे। कुछ निकाल सकोगी, माँ?"

सुलेखा तुरंत कहती है, 'अरे! यह क्या? तुझे ब्लाउज चाहिए, पहले क्यों नहीं कहा? जानती तो है कि मैं घर-गृहस्थी में फँसी रहती हूँ, ध्यान नहीं रहता। समिति के लिए तो इतनी सिलाई करती हूँ..'

हाथ जोड़कर नीरा बोली, 'माफ कर दो माँ, तुम्हारी उस समिति की छाँट के ब्लाउज नहीं पहन सकूँगी। कुछ रुपए निकाल सको तो दो, नहीं तो रहने दो।'

सुलेखा व्यस्त होकर बोली, 'रहने कैसे दूँ? निकालकर खाने की मेज पर रखती हूँ, तू नहाकर आ। ले जाना मत भूलना।'

जैसे नीरा पैसे भूलनेवाली हो।

फिर भी इसी तरह बेटियों के आत्मसम्मान को बचाती फिरती है सुलेखा। उन्हें माँगना जो पड़ रहा है, इसी संकोच को कम करने के लिए

अपनी त्रुटियों का पलड़ा भारी करती जाती है वह।

बेटियों को कपड़ों की जरूरत है, इसका ध्यान जैसे सुलेखा को ही हमेशा रखना चाहिए। उसी के अनमने स्वभाव के कारण उन्हें माँगना पड़ जाता है।

क्यों ऐसा करती है सुलेखा?

अपना आत्मसम्मान धूल में मिलाकर बच्चों के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए इतनी सचेष्ट क्यों है वह?

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