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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

19

अचानक सुलेखा को लगा कि उसका यह छोटा बेटा किसी नंदन कानन की वार्ता लेकर आया है।

झूठ! बिलकुल झूठ! अब तक बेकार ही डर रही थी। शैतान ईरा ने मजाक ही किया था। उसी मजाक के कारण ही तिन्नी मुक्के दिखा रही थी दीदी को। और उसी से डरकर सुलेखा"

इसी को कहते हैं-रस्सी में साँप का भ्रम।

ऐसा कहीं सच हो सकता है? निहायत ही बच्चे की तरह जिसे हाथ में किताब लेते ही नींद आती है और बिना खाना खाए ही जो सो जाती है, वह भला यह सब कर सकती है?

अभी हाल में ही तिन्नी कह रही थी, 'अच्छा माँ, तुम जो ताड़ के मीठे बड़े बनाती थीं, दिल करता था, कटोरे भरकर खाऊँ। वह कब बनता है? बरसात में या जाड़े में?' सुनकर हँसने लगी थी सुलेखा। फिर कल भी कह रही थी, 'माँ, पहले तुम कितने अच्छे-अच्छे पकवान बनाती थीं! अब क्या भूल गईं सब? नारियल की मिठाई* ! कितने दिनों से नहीं बनाई, जरा कहो तो?' * गोकुल संदेश

वाकई, सुलेखा ने कितने दिनों से वह सब नहीं बनाया। समय का सदुपयोग करने के लिए वह दिन-रात एक कर रही है। अब ऐसा हो गया है कि जब कुछ काम नहीं होता तब भी वह मशीन चलने की घर-घर्र आवाज सुनती रहती है। क्या यह आवाज उसके सीने से निकलती है?

उन्हीं बच्चों के लिए तो यह रास्ता अपनाया था सुलेखा ने, मगर मुट्ठी भर पैसे के सिवा और कर ही क्या पाती है उनके लिए? .

कल ही सुलेखा तिन्नी के लिए नारियल की मिठाई बनाएगी। अहा! मेरी गुड़िया-सी तिन्नी। एक वही है जो रह-रहकर मिठाई, लड्डू, दालपूरी, कचौड़ी की फरमाइश करती रहती है। तिन्नी को मांस-मछली बिलकुल पसंद नहीं। यही सब उसे अच्छा लगता है। खीर मिल जाए तो और कुछ पलटकर भी नहीं देखती वह।

ताड़ के बड़े जाड़े में होते हैं या बरसात में, यह भी नहीं पता है उसे। ऐसी लड़की के बारे में उलटी-सीधी सुनाकर यों ही ईरा ने सुलेखा को"हे ईश्वर ! उन आँसुओं से उसका कोई अमंगल न हो।

सुलेखा दीपंकर से बोली, "छोटी दीदी की बात रहने दे। बराबर ही ऐसी है। भैया लौटा?"

"कहाँ? देखा तो नहीं।"

"नहीं देखा, इसका मतलब यह कि नहीं लौटा है। इतनी देर से आते हैं सब? घर की तो जैसे याद ही नहीं आती है।"

उसके बाद जैसे अचानक ही याद आ गया, इस ढंग से बोली, "और मझली दीदी?"

"मझली दीदी! वह तो इवनिंग शो में सिनेमा गई है मेट्रो में।" सुलेखा को फिर आँखों के आगे सर्वनाश की छाया दिखाई पड़ने लगी।

मेट्रो में शाम के समय। इसका अर्थ है कि अकेले नहीं गई। अर्थात् जान-बूझकर दुस्साहस कर रही है।

लगता है, वह एक संघर्ष ही चाहती है। चाहती है कि एक तूफान उठे और इस पारिवारिक बंधन से वह मुक्त हो जाए।

सुलेखा की चिंता में इतनी स्पष्टता नहीं थी, केवल ऐसी ही भावनाओं की तरंग उसे धक्के मार-मारकर पता नहीं कहाँ ले गई! ___ इतनी चिंता, इतनी उथल-पुथल, फिर भी सुलेखा के हाथ अपने निश्चित नियम के अनुसार काम किए जा रहे थे। दस बजते-बजते सबका खाना तैयार हो जाएगा। तब तक वे आ भी जाएँगे जरूर। और दीपक ही तिन्नी को नींद से जगाकर खाने के लिए बुलाकर लाएगा। भैया की पुकार सुनते ही लड़की उछलकर खड़ी हो जाती है। डरती है उससे और प्यार भी उतना ही करती है।

मगर यह क्या हुआ?

दस बजने से दस मिनट पहले ही निशीथ ऊपर चला आया-कैसे? वह भी बिना चप्पल पहने दबे पाँव?

"क्या आज जल्दी भूख लग गई? अच्छा ही हुआ। आज मटन का स्टू बना है। मुन्ना से चखवाया था। उसने कहा, स्वादिष्ट बना है। चलो, आज जल्दी ही परोस देती हूँ।"

पानी का गिलास मेज पर रखते ही 'ठक' से आवाज हुई।

निशीथ गंभीर भाव से बोला, "किसका खाना परोसा जा रहा है?"

सुलेखा सहज भाव से बोली, "सभी को दे रही हूँ। एक-एक कर रोटी सेंक दूंगी।"

"हाँ, सेंक दोगी। जिन्हें दोगी, वे हैं कहाँ?"

सुलेखा अबोध की तरह बोली, "क्यों, दीपू अभी तक आया नहीं क्या? आ जाएगा।"

"और तुम्हारी मझली बेटी?"

"कौन, नीरा?"

जिंदा मछली उछल रही है, फिर भी सुलेखा साग से उसे ढकना चाहती है। आग धधक रही है, फिर भी सुलेखा उस आग को राख से ढकने की कोशिश कर रही है।

'कौन, नीरा?' ऐसे पूछा उसने जैसे मझली बेटी कौन है, समझने में देर लगी उसे। फिर बोली, "नहीं आई क्या? ओ माँ!"

तभी दीपंकर बोल उठा, "क्यों माँ, अभी कहा न मैंने, मझली दीदी मेट्रो में गई है!"

अचानक उस सीधे-सादे बेटे पर आगबबूला हो गई वह । बोली, "तूने कहा? ओह ! तुझे ही बताकर गई है क्या? और कोई मिला नहीं जो तुझसे अनुमति लेकर गई?"

दीपंकर चुप हो गया।

बाबूजी के सामने माँ ऐसी अनेक ऊटपटाँग बातें करती हैं, बचपन से ही देखता आया है वह । इस बात से घृणा होती है उसे। अभी तक वह स्कूल की चारदीवारी में ही है, मगर बहुत कुछ सोचता है वह।

आदमी बिना वजह क्यों डरता है-यही उसकी खोज का विषय है।

हालाँकि यह तो सुलेखा के सोचने का विषय था। वही सोच सकती थी-जीवन भर इस आदमी से इतना क्यों डरती रही मैं?

जिन्हें डरना चाहिए, जो अनुचित काम कर रहे हैं, उनके दिल में तो डर नहीं है। मैं ही क्यों उलटा-सीधा समझाकर झूठ बोलकर उन्हें तलवार की चोट से बचाने की कोशिश करती हूँ?

इसके लिए वे कृतज्ञ भी तो नहीं हैं?

सुलेखा समझती नहीं है कि कृतज्ञता की भावना उनमें हो भी नहीं सकती, क्योंकि उस तलवार को वे तलवार ही नहीं समझते हैं । वे जानते हैं कि वह तलवार टीन की है। जमाने से जो वीर पुरुष उसे लेकर मंच पर उठते थे, उछल-कूद कर, उसकी चमकती नोक को घुमा-फिराकर डराते-धमकाते थे, उनके दिन अब रहे नहीं। टीन की तलवार अब ड्रेसिंग रूम के एक कोने में पड़ी-पड़ी जंग लगकर खराब होती जाएगी।

सुलेखा नहीं समझती है कि इसी कारण निशीथ को हिम्मत नहीं होती कि बच्चों पर अंकुश लगाए। उसे पता चल गया है कि ऐसा करने से ही नागिन की तरह फन उठाकर फुफकारने लगेगी उसकी मझली बेटी। उस अपमान से आशंकित निशीथ केवल आड़ में रहकर गरजता है।

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