लोगों की राय

नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

18

सुलेखा को देखकर चाचा निरुत्साहित चेहरा लेकर मौन खड़े रहे, चाची रात-दिन सुलेखा की बूढ़ी सास की बेअक्लमंदी का वास्ता देकर अपना गुस्सा उतारती रहीं। और माँ आड़ में ले जाकर फटकारने लगीं, 'ठीक ही तो कहती है। तू किस अक्ल से साल-दर-साल ऐसी हालत बनाकर चाचा के घर चली आती है? न तेरे बाप है, न माँ की कोई हैसियत है, न तन में दम है। दामाद से कह नहीं सकती, किसके मत्थे पइँ मैं?'

आँसुओं में तैरकर सुलेखा ने अपने बच्चों को सौभाग्यशाली का दरजा दिया। उसने हर बार यही सोचा कि अब और नहीं।

मगर यह सोच टिक पाई कहाँ।

एक स्वस्थ शक्तिमान विवाहित युवक अपने विवाहित जीवन से पूरी वसूली किए बिना कब छोड़नेवाला था? प्रत्येक रात को ही तो वह जोश से भरपूर होकर आता था। ऐसे में रोती हुई दुःखी उदास पत्नी किसे पसंद आ सकती है भला!

क्या पत्नी भी ऐसे प्रेमिक पति को पाकर सब दुःख भूल न जाएगी?

क्या पति के उमड़ते आवेग को ठुकरा देगी---सास के वचन सुनकर मन उदास है, इसलिए?

जब समालोचना कर नहीं सकती तो उदास चेहरा भी क्यों? _ दिन भर मेहनत कर बेचारा पति रात में थोड़ी सी खुशी की मांग नहीं कर सकता है क्या?

'माँ अकारण ही इतना क्रोध करती हैं।'

इतना सुनकर ही निशीथ ने तीन दिनों तक बात नहीं की उससे। ताव दिखाता रहा।

और सास ने बेटे के रंग-ढंग देखकर अनायास टिप्पणी कर दी, 'कहाँ से छोटे घर की इस चुगलखोर लड़की ने आकर मेरे देवता जैसे बेटे को भूत बना दिया।'

हमेशा वह यही सोचती थीं कि बहुएँ दिन-रात पति के पास सास के नाम शिकायत करती रहती हैं। अत: सुलेखा को अपने पति के सामने भी एक अभिनय का मुखौटा चढ़ाना पड़ा। फिर भी अपनी चौथी संतान के जन्म के समय सुलेखा अपने चाचा के घर जाने से इनकार करने लगी। अपने पति से विनती की, 'उस असम्मान में अब और मुझे मत भेजो, यहीं रहने दो मुझे।'

निशीथ ने हैरत में पड़कर कहा, 'हमेशा से ही तो सुनता आया हूँ कि इस हालत में बेटी अपनी माँ के घर जाती है और पिता न हो तो चाचा, भाई यही लोग सँभालते हैं। इसमें अचानक असम्मानवाली क्या बात हो गई? मुझे तो नहीं समझ में आ रहा है। इसके अलावा इन सब और ताने-झमेलों में मैं क्या हाथ बँटा सकता हूँ?" हालाँकि सुलेखा के जमाने में स्त्रियाँ क्रमशः स्वाधीन हो रही थीं। उनके पैरों तले जमीन थी। कई लोग इन जिम्मेदारियों को मायके पर थोप देना बुरी नजर से देखते थे। यहाँ तक कि कुछ लोगों के पति भी अपनी पत्नी को आँखों से ओझल होने नहीं देना चाहते थे।

सैकड़ों नर्सिंग होम तथा प्रसूति-सदन उनकी सहायता कर रहे थे।

फिर भी सुलेखा को जाना पड़ता था अपने उस आमंत्रणविहीन निस्संतान 'चित्रालय' में।

छोटे बेटे ने सुलेखा को इस विडंबना से मुक्ति दी थी। आठ महीने में ही अपने पितृगृह की भूमि पर पदार्पण हो गया था उसका। इसके लिए भी क्या सुलेखा को कम लांछन सहने पड़े थे? उदंडी सुलेखा ने कोई विधि निषेध नहीं मानकर समय से पहले ही बेटे को धरती पर पछाड़ दिया था, इसमें क्या शक है?

यह एक दर्दनाक इतिहास है। उसे याद करने से आज भी इसके कलेजे में हलचल मच जाती है। इसीलिए याद करती भी नहीं।

दरअसल, अठारह वर्ष की उम्र में सुलेखा को एक दांपत्य जीवन मिला था। उस जीवन के उत्तरदायित्व को निभाने के लिए वह मजबूर थी। इससे अधिक तो किसी से कुछ कहा नहीं जा सकता है।

फिर भी, तुम अपने कोख की संतान होकर भी कुछ अनुमान नहीं कर सकती?

बड़ी हुई या नहीं? पढ़-लिखकर विद्वान् बनी या नहीं?

फिर भी बेटी होकर तुने माँ की उसी जिंदगी पर व्यंग्य करके अपनी दुलारी बहन का समर्थन किया? इस समर्थन से माँ के दिल पर क्या बीतेगी-यह सोचा नहीं तूने?

आश्चर्य होता है ! क्या तुम्हारे पास दिल नहीं है? तभी तो इतनी गहरी दुःखद बात ऐसे हँसते-हँसते कह गई!

नीरा से अधिक तिन्नी की सोच में ही सुलेखा का दिल धक-धक करने लगा। नीरा के बारे में सुनकर तो ऐसा नहीं हुआ था। उस समय तो केवल एक डर-सा-क्या जाने कौन विपत्ति आ जाए, क्या अशुभ हो जाए, यही चिंता थी।

और तिन्नी?

सुलेखा को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके कलेजे को नोचकर निकाल लिया है। कौन है वह?

नीरा की खबर सुनकर नहीं रोई थी सुलेखा। आज आँसुओं से उसका तकिया गीला हो गया।

उधर ईरा माँ को इस तरह बिस्तर पर लोटते हुए देखकर तंग आकर नाक सिकोड़कर सोच रही थी। आश्चर्य है ! क्या ये लोग आँखों पर पट्टी लगाकर घूमते-फिरते हैं? जो निहायत ही स्वाभाविक है, वास्तव है, उसकी छाया देखते ही भूत देखने की तरह घिग्घी बँध गई? बच्चे बड़े नहीं होंगे? जिंदगी भर क्या तुम्हारी गोद में बैठकर दूध पीएँगे?

"बात क्या हो गई? कि बेटी को प्रेम हो गया। और तो कुछ नहीं। हालत देखकर तो लग रहा है वह मर ही गई है।" ईरा होंठ बिचकाकर हँस

पड़ी, "अभी तो एक खबर मालूम ही नहीं।"

बड़ी देर बाद सुलेखा हड़बड़ाकर उठ बैठी।

"कितने बजे हैं? दस तो नहीं?" गृहस्थी के कामों में मन के लिए समय ही कहाँ?

"नहीं, साढ़े नौ बजे हैं।" गनीमत है। सुलेखा ने देखा, दीपंकर तीसरी मंजिल से नीचे आ गया है।

दीपंकर बोला, "माँ, छोटी दीदी आज भी नींद में धुत्त है। किताब लेकर बस बैठती है, ऊँघती है और फिर सो जाती है।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book