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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

17

सुलेखा हैरान रह गई। यह बात ईरा ने कितनी आसानी से कह डाली, जैसे उस धागे का कटना कोई भयंकर घटना नहीं, बल्कि बहुत ही स्वाभाविक और साधारण सी बात है। रुंधे स्वर में सुलेखा बोली, "धागा तोड़कर उड़ जाएगी, ऐसा कह रही है तू?"

"हाँ, जो सच है, वही कह रही हूँ।" ईरा ने कहा, "कब से चल रहा है उसका."

"चल रहा है ! क्या चल रहा है?"

“आह ! तुम और बेवकूफी मत करो, माँ। चल रहा है प्रेम, समझी अब?"

"तुझे पता था?" "क्यों नहीं! आँख-कान होने से पता चल ही जाता है।" सुलेखा बैठकर बोली, "फिर भी मुझे नहीं बताया तूने?"

"क्या होता बताने से? तुम रोकती?" सुलेखा बोल पड़ी, “शुरू में पता चलता तो रोका जा सकता था।"

ईरा स्वभाव से गंभीर है, फिर भी हँस पड़ी। बोली, "माँ, तुमने ऐसे कहा जैसे टी.बी. या कैंसर हो। फर्स्ट स्टेज में पता चलने पर रोक लिया जाता। नहीं होता माँ, यह और भी बड़ी बीमारी है, लाइलाज!"

इतने दिनों तक सुलेखा को संदेह होता भी था तो मन को समझा लेती थी। सोचती थी कि शायद ऐसे ही भावुक हो रही है। इसका मतलब यह तो नहीं कि ऐसा भयंकर कुछ कर बैठेगी?

मगर ईरा ने उसकी वह निश्चितता भी छीन ली।

सुलेखा क्षुब्ध होकर थोड़ी देर बैठी रही। फिर बोली, "इसका मतलब यह हुआ कि माँ-बाप, भाई-बहन सबके होते हुए वह बेवकूफ बह जाएगी

और सब बैठकर देखते रहेंगे?"

ईरा अब कठोर हो गई। बोली, "माँ-बाप, भाई-बहन सब मिलकर बैठे-बैठे सच्ची मौत भी तो देखते हैं, माँ। नहीं देखते क्या? कुछ कर सकते हैं? और फिर यह तो सुख की मौत है। तुम तो ऐसे आसमान से गिर रही हो जैसे दुनिया में ऐसी घटना और देखी ही नहीं। "हाँ, बीमारी के प्रथम चरण में पता चलने पर अगर रोकना संभव है तो रोक लो। अपनी छोटी कन्या को..."

"क्या? क्या कहा?"

स्प्रिंगवाली गुड़िया की तरह झटके में उठ खड़ी हुई सुलेखा। और हैरान होकर देखती रही-उसकी तिन्नी, फ्रॉक पहनी हुई तिन्नी अनायास ही अपनी दीदी की ओर भौंहें तानकर मुक्के दिखाकर कमरे से निकल गई।

भर्राई आवाज में सुलेखा बोली, "ईरा! उस कलमुँही के बारे में क्या कहा तूने?"

"कुछ नहीं कहा माँ, कुछ नहीं।" दोनों हाथ जोड़कर ईरा बोली, "समझ लो, मजाक कर रही थी।"

"इसका मतलब यह कि दीदी होकर तू उसकी करतूतों पर परदा डालकर सर्वनाश करेगी उसका?"

कठोर, मगर शांत स्वर में ईरा ने कहा, "माँ! तुम्हारे सर्वनाश की धारणा के साथ हमारी धारणा मिलती नहीं है; मगर कह देती हूँ, इस बात को लेकर उसे डाँटने जाओगी तो मुसीबत ही होगी।"

सुलेखा को लगा कि वह दीवार पर अपना सिर पटक दे। चीख- चीखकर रोने की इच्छा हुई उसे। टूटी हई आवाज में बोली, "तिन्नी प्रेम करने चलेगी और मैं डाँटू तो मुसीबत होगी?"

"तिन्नी के नाम से इतना हैरान क्यों हो रही हो, माँ? अठारह साल की हो गई है वह। इस उम्र में तुम्हारी तो शादी हो गई थी, क्यों?"

ईरा के उस दृढ़ व्यंजनामय चेहरे की ओर देखकर अचानक सुलेखा उस कमरे से भागकर बाहर चली गई। जाकर बिस्तर पर पड़ गई वह। राई खोजने चली थी, उसे पहाड़ दिख गया। उसकी बेटी ने माँ के साथ तुलना की। सुलेखा की शादी अठारह साल में हो गई थी और साल पूरा होते ही गोद भर गई थी।

सही बात है।

मगर क्या सुलेखा तब बच्चों की तरह छोटा सा फ्रॉक पहनकर घूमती फिरती थी? क्या सुलेखा एक गिलास पानी भी डालकर नहीं पी सकती थी? क्या वह चॉकलेट पाने की आस में भैया का हाथ पकड़कर उछल-कूद करती थी? क्या वह थोड़ी रात होते ही बिना खाना खाए सो जाती थी और उसे जगाकर खिलाया जाता था? उसे तो अठारह वर्ष से पहले ही परिपक्व बना दिया गया था। उससे काम की अपेक्षा की जाती थी; कर्तव्य की, उत्तरदायित्व-बोध की आशा की जाती थी। बड़ों की इन अपेक्षाओं और आशाओं की पूर्ति में जरा सी कमी होते ही सुलेखा की इतनी निंदा होती कि वह मिट्टी में मिल जाती थी।

सुलेखा के सुशिक्षित पति अपनी पत्नी के कर्तव्यपालन में कमी देखकर कई दिनों तक बात नहीं करते थे। निष्ठुर, सहानुभूतिहीन स्वर में कहते, 'माँ की समालोचना अब और कभी नहीं होनी चाहिए।'

मगर क्या ऐसी समालोचना सुलेखा ही करती थी?

जैसी तीखी समालोचना सुलेखा की बेटियाँ अपनी माँ को लेकर करती हैं, उसके आस-पास भी होती थी क्या? दरअसल वह समालोचना होती ही कहाँ थी? पति को अपना जानकर कभी किसी रात को अपने असहाय दुःख-दर्द का बोझ हलका करने आती थी उसके पास, इससे अधिक तो कुछ नहीं।

तुम लोग क्या जानोगे कि वह बोझ कितना भारी था।

निशीथ की माँ निशीथ के जैसी ही ममताहीन थी। एक बार भी नहीं सोचती कि बच्ची है, समझ नहीं पाई।' उसके हर कदम पर कड़ी समालोचना के जाल बिछाए रहती थीं वह । और रत्ती भर की गलती को जान-बूझकर की गई बदमाशी कहती थीं।

सुलेखा की सास कभी उसे काम-काज, बोल-चाल या आचार व्यवहार के विषय में कोई निर्देश नहीं देती थीं। अपनी पसंद-नापसंद भी कभी उसे नहीं बताती थीं, मगर यह आशा जरूर रखती थीं कि सुलेखा सबकुछ समझकर चलेगी । कहीं त्रुटि नहीं करेगी।

उसकी सास के मुँह की बोली ही थी, 'इतनी बड़ी जवान औरत! इतना भी नहीं जानती?'

सुलेखा की ननद उससे साल भर ही बड़ी थी। मगर चूँकि वह अनब्याही थी, इसलिए उसकी उम्र की बात ही नहीं उठती थी। वह तो एक बालिका मात्र थी।

सुलेखा को अच्छी तरह याद है, एक बरसाती दोपहर में वह सो गई थी और छत पर पसारे हुए कुछ कपड़े भीग गए थे।

सास छत पर नहीं थीं। कभी नहीं रहती थीं। बारी-बारी से सारे पड़ोसियों के घर घूमने जाती थीं और शाम को लौटकर दीवार को सुनाकर पड़ोस की बहुओं के गुणों का बखान करतीं और अपने जले नसीब को कोसती थीं।

उस दिन अचानक बारिश आ गई तो भागकर घर लौटीं और देखा कि बहू सो रही है। छत पर कपड़े भीग रहे हैं।

बहू को मजा चखा दिया था उस दिन उन्होंने।

सुलेखा ने हैरान होकर सोचा था, 'इतने बिष-बाण उनके तरकश में जमा रखे थे "सुलेखा की ननद! वह भी तों सो रही थी, मगर उसकी बात उठेगी क्यों? वह तो लड़की है?

सुलेखा की बड़ी जेठानी? वह अपने मायके गई हुई थी। इस वंश की संतान को मामा के घर जन्म देने के लिए।

सुलेखा की सास कहती थीं, 'मामा के घर पैदा होने से बच्चे को सौभाग्य मिलता है।'

सुलेखा का वैसा मायका भी कहाँ था? फिर भी जिद करके उन्होंने चाचा के घर ही भेज दिया था सुलेखा को-बच्चा सौभाग्यशाली होगा, इसी विश्वास पर।

एक सुलेखा के सिवा और कौन जान सकता है कि उस स्थिति में बिन बुलाए चाचा-चाची के घर जाने में कितनी लज्जा, कितना अपमान था!

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