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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

 

16

मगर उसने सोचा नहीं था कि लौटते समय आज ऐसा एक दृश्य देखना पड़ेगा उसे।

उसने देखा, मोड़ पर एक लड़के से विदा लेकर नीरा घर लौट रही है या कहा जा सकता है कि एक लड़का नीरा को घर के दरवाजे तक छोड़ गया।

पल भर का दृश्य, मगर माँ की आँखें धोखा नहीं खातीं। उसका दिल जोर से धड़क उठा, जैसे उसे एक भय का संकेत मिल गया।

सुलेखा ने सोचा कि घर जाकर पूछने पर वह टाल जाएगी। अभी टोकना जरूरी है। जल्दी से बेटी के करीब आकर बोली, "वह लड़का कौन था री, नीरा?"

नीरा बहुत जोर से चौंक उठी। उसने भी सोचा नहीं था कि यहाँ माँ से मुलाकात होगी।

मगर नीरा अपनी माँ की तरह डरपोक नहीं है। इसलिए पल भर में साहस कर लापरवाही से बोली, "कौन लड़का? जो मुझे पहुँचाकर गया? वह तो मेरे क्लास की एक लड़की का भाई है।"

"तो वह तुझे पहुँचाने क्यों आया? कहाँ गई थी?"

नीरा और भी आराम से बोली, "उसी के घर गई थी न । बातों-बातों में देर हो गई। वही बोली कि रात हो गई भैया, जरा नीरा को छोड़कर आओ।"

सुलेखा को पीछे छोड़कर बढ़ती गई नीरा।

सुलेखा ने भी कदम तेज कर दिए। घर पहुँचते ही यह बात दब जाएगी, इसलिए पूछा, "कहाँ है उस सहेली का घर?"

"प्रियनाथ मल्लिक रोड पर।"

"अरे बाप रे! उतनी दूर गई थी? कहकर तो नहीं गई थी कि वहाँ जाना है।"

"अरे बाबा, पहले से ठीक थोड़े ही था ! जबरदस्ती गाड़ी में उठाकर ले गई।"

"गाड़ी है क्या?"

"नहीं तो कहाँ से गाड़ी में उठाकर ले जाती?" सुलेखा ने एक लंबी साँस छोड़ी। इन सब अमीर लड़कियों से दोस्ती करके ही इन लोगों के मन में इतना असंतोष है।

"उफ, कितना तेज चल रही है। सहेली का नाम क्या है?"

अचानक पलटकर रुक गई नीरा। कठोर स्वर में बोली, "क्यों? अचानक ऐसे पुलिस की तरह जिरह करना क्यों शुरू कर दिया तुमने? सोच क्या रही हो? बेटी बिगड़ गई? एक लड़के को देखते ही तुम लोगों का कलेजा धड़कने लग जाता है। कितनी 'मीन माइंड' हो!"

'मीन माइंड' माँ को सड़क पर भौचक्की-सी छोड़कर घर के भीतर चली गई नीरा। सुलेखा आ गई, मगर आज सुलेखा का नसीब खराब है। इसीलिए अभी तक निशीथ के ताश के अड्डे के दोस्त पहुँचे नहीं। बाहर

की खिड़की पर नजर टिकाए बैठा था निशीथ।

दोनों को उसने भीतर आते देखा। बाहर आकर बोला, "तुम्हारे साथ नीरा कहाँ गई थी?"

सुलेखा घबरा गई; मगर एक तरह से निश्चित भी हुई। जल्दी से बोली, "नहीं, मेरे साथ तो नहीं गई थी। समिति के ऑफिस जा रही थी, ये लौट रही थी, इसीलिए एक साथ थोड़ी दूर..."

"क्यों? कॉलेज से लौट रही थी, उसे क्यों समिति में घसीटना? थकी-हारी लौट रही थी। कहीं उसे भी सदस्य बना लेने का इरादा तो नहीं?"

सुलेखा जल्दी से बोली, "हाँ, अब यही बाकी है। ऐसे ही मिल गई रास्ते में, तभी तो। तुम्हारे दोस्त आज आए नहीं?"

"नहीं, मगर बात को टालो मत। इतनी रात तक वह घूमती क्यों रहती है?"

"वाह ! रोज ही घूमती है क्या?"

सुलेखा वहाँ से खिसक गई। आजकल भरसक चेष्टा करती है कि शाम को सिलाई न करे। दोपहर से शाम होने तक लगातार बैठकर सारी सिलाई करके शाम को वह खाना पकाती है। इसमें तकलीफ ज्यादा है, मन बड़ा चंचल रहता है। पहले शांति थी, सारे काम से निपटकर बैठती थी, घड़ी देखकर उठ जाती थी। अब तो बाल नहीं सँवारती, नहाना नहीं हो पाता। गरमी लगती है। खैर, और करे भी क्या?

ऊपर आकर सुलेखा ने चुपके से नीरा से कहा, "ऐ, तेरे बाबूजी पूछ रहे थे-नीरा तुम्हारे साथ क्यों थी?"

"बाबूजी!" नीरा चौंककर बोली, "बाबूजी ताश नहीं खेल रहे हैं?" "नहीं, दोस्त आए नहीं।" "तो तुमने क्या कहा?" "मैंने कहा, 'कॉलेज से लौट रही थी, अपने साथ समिति ले गई थी उसे।"

नीरा मन-ही-मन शायद निश्चित ही हुई। फिर भी कठोर किंतु ठंडी आवाज में बोली, “झूठ कहने की क्या जरूरत थी?"

"क्यों? पहचानती तो है उनको। इतनी रात तक क्यों टहल रही थी इसी बात पर शोर मचाएँगे। किया भी ऐसा ही उन्होंने।"

नीरा ने और भी शांत होकर कहा, "नाराज होने का अधिकार है उन्हें, नाराज होंगे। उससे मेरा कुछ नहीं आता-जाता है। पिंजरे का पंछी नहीं हूँ मैं।"

सुलेखा अवाक् होकर खड़ी रह गई।

इतने बड़े होते जा रहे हैं उसके बच्चे! पिंजरे में अब नहीं रहेंगे? मगर सुलेखा को अभी तक अपने पिंजरे का दरवाजा क्यों नहीं मिल रहा है?

फिर सुलेखा क्यों कहती थी, तुम लोग कब बड़े होगे? मैं चैन की साँस लूँगी।

मगर एक दिन ही नहीं, रोज की घटना हो गई है नीरा का देर से लौटना। उलटी-सीधी बात करके रोज कहाँ तक छिपाई जाए।

नीरा का तो कुछ आता-जाता नहीं। फिर भी सुलेखा सँभालने की कोशिश करती है। कहती है-कहकर गई है, देर होगी। कहती है, दोस्त के यहाँ खाने पर बुलाया है।

आज निशीथ अचानक ही ताश के अड्डे से उठकर आया और गरजकर पूछा, "नीरा नहीं आई?"

जैसे कि उसका नहीं आना सुलेखा का ही अपराध है।

सुलेखा ने कहा, "नहीं तो, आज तो कुछ बताकर भी नहीं गई है। मैं सोच से मरी जा रही हूँ।"

"सोचकर मरने की जरूरत नहीं, अब नसीब ठोककर मरना होगा। खूब ढकती रहो बेटी के दोष।" कहकर नीचे चला गया निशीथ।

मगर हैरत की बात यह है कि खुद बेटी से कुछ नहीं कहता है । गुमसुम रहता है।

तो क्या सुलेखा खुद आगे बढ़कर अशांति की आग जलाने के लिए कह दे, 'क्यों, इतनी गरमी दिखा रहे थे, अब डाँटते क्यों नहीं?'

ईरा मुसकराकर बोली, "कब तक साग से मछली ढकती फिरोगी, माँ? तुम्हारी मझली बेटी तो उड़ने लगी है। अचानक एक दिन धागा तोड़कर आसमान में ।

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