?> Ve Bade Ho Gaye - Hindi book by - Ashapurna Devi - वे बड़े हो गए - आशापूर्णा देवी

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: sidebar

Filename: layouts/index.php

Line Number: 6

नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

2

अब तो सबकुछ सुंदर है, सजा-सँवरा है। अब अगर बच्चों के बारे में कोई पूछताछ करे तो आराम से कहा जा सकता है-दो बेटे, तीन बेटियाँ हैं-बड़ा बेटा मेडिकल स्टुडेंट है, अगले वर्ष फाइनल परीक्षा देगा। बड़ी बेटी ने बी.ए. पास कर बी.टी. पढ़ना आरंभ किया है। मझली बेटी बी.एस सी. में पढ़ रही है, छोटी ने इस बार हायर सेकेंडरी की परीक्षा दी है और सबसे छोटा बेटा दसवीं कक्षा में है।

सुलझा हुआ परिवार है, जैसे मोहरे बिछाए हुए शतरंज की बिसात हो। बस, खेल शुरू करने भर की देर है।

मगर हैरत की बात तो यह है कि अब अकसर सुलेखा को लगता है कि खेलने के लिए अब कुछ बचा ही नहीं और लगता है कि ये पाँचों बच्चे जब छोटे थे, तभी जीवन और सरल था।

तब झंझट होता भी था तो उन्हें नहलाने-खिलाने में, उनके कपड़े और गुदड़ी बदलने में, उनकी जिद पूरी करने में और हरदम निगरानी करने में। कोई खाट से गिर न जाए, कोई सड़क पर न निकल जाए। और क्या था? और तो कुछ याद नहीं आता। फिर पता नहीं क्यों, सुलेखा दिन रात सोचा करती थी-उफ, ये किसी तरह बड़े हो जाएँ तो मैं चैन की साँस ले सकूँ।

क्या पाँचों की पाँच किस्म की जरूरतें होती थीं, इसीलिए?

तब तो दो बच्चे दोपहर में स्कूल जाने लगे थे, बाकी तीनों सवेरे। उन्हें दस बजे के भीतर ही नहला-खिलाकर भेजना पड़ता था, इन दोनों को भी उसी समय तैयार कर देती थी। पहले इन्हें देखे या फिर उनके लिए चावल पकाने बैठे, समझ नहीं पाती थी वह । घर के प्रधान सदस्य को तो ठीक नौ बजे खाना तैयार चाहिए।

तब सुलेखा को लगता था कि पानी में कूदे या आग में? कभी तो सोचती थी-उफ, ये बड़े-बड़े हो जाएँ किसी तरह । “सुबह के काम से निपटते ही सुबह के स्कूल से बच्चे वापस आ जाते थे। तब उन्हें पकड़कर, नहला-खिलाकर सुलाना मल्ल-युद्ध से कम था क्या? अकसर सुलाने की वह कोशिश भी बेकार जाती थीं। सुलेखा न सो पाती, न कुछ काम कर पाती थी। कहानी की किताब पढ़ना? वह तो सपना था।

मगर किताब पढ़ने की कितनी चाहत थी उसमें । वैसे, उसी में जीवन का सही अर्थ मिल जाता था।

इसके लिए उसकी चेष्टाओं का अंत नहीं था, अंत नहीं था डाँट खाने का भी । फिर भी नशा छूटता नहीं था।

हाथ में कहानी की किताब देखते ही चाची बोल उठती थीं, 'यह किताब फिर कहाँ से आ गई?'

चाची बेजार होकर कहती थीं, 'घर में एक लाइब्रेरी से तो किताबें आती ही हैं। फिर भी इसके घर, उसके घर जाकर किताब माँगकर लाना। पता नहीं, ऐसा भी क्या नशा! क्यों? मुझे भी तो कहानी-उपन्यास पढ़ना अच्छा लगता है, तो क्या मैं मुहल्ले में घूम-घूमकर माँगती फिरती हूँ? किताब लाइब्रेरी से मँगाकर पढ़ी जाती है, यही तो जानती हूँ।'

चाची तो केवल इतना ही जानती हैं, यह सुलेखा को अच्छी तरह मालूम है और यह भी जानती है कि चाची की धारणा से पसंद की चीज का आनंद धीरे-धीरे लेना चाहिए।

अत: लाइब्रेरी से किताब बदलकर ले आना महीने में कुल तीन-चार बार ही होता होगा। अगर किताब मोटी हुई तो और भी कम।

तो फिर? सुलेखा के मन की भूख मिटाने के लिए महीने में सिर्फ दो तीन पुस्तकें? घर-घर से माँगकर लाए बिना चारा ही क्या?

पाँच दिन भोजन किए बिना पड़ी रह सकती है सुलेखा आराम से, परंतु पाँच दिन किताब के बिना? वैसा जीवन तो मरुभूमि-सा ही कठिन और नीरस होगा।

अतः निरुपाय सुलेखा प्यास बुझाने की आस लेकर पड़ोस के घर जाकर पूछती है, 'नीला चाची, आपने लाइब्रेरी से किताब बदली क्या?''

किसी और के घर जाकर कहती, 'मौसीजी, फिर आ गई आपको परेशान करने। उस दिन विभूति बंदोपाध्याय की जो किताब पढ़ रही थी, पूरा पढ़ लिया क्या?"

"नहीं तो कभी मोड़ पर जाकर सामनेवाले घर में सावधानी से पूछती है, 'समीर चाचा घर पर हैं?'

समीर सेन समाचार-पत्र के समालोचना विभाग में काम करते हैं। उनके घर में किताबों और पत्रिकाओं का ढेर लगा रहता है। यह घर तो मानो एक जलाशय ही है; परंतु एक कठिनाई है, उस जलाशय में लुटिया भरने के लिए स्वयं समीर सेन की उपस्थिति आवश्यक है। घर के लोग उनकी चीजों को छूने की हिम्मत नहीं करते हैं।

हिम्मत नहीं करते-इसका कारण यह नहीं है कि वे क्रोधी स्वभाव के हैं, बल्कि इसलिए कि कब किस चीज की उन्हें जरूरत पड़ जाए। और समीर सेन तो ईद के चाँद हैं। रात में जब वे घर लौटते हैं तब पड़ोस की किसी कुँआरी लड़की के लिए उनके घर जाना संभव नहीं होता। थोड़े से पल सुबह के मिल पाते हैं तो वह भी वे अकेले होते ही कब हैं ! जब देखो, अतिथियों से घिरे रहते हैं।

कमरे में किताबों का ढेर, खिड़की पर, अलमारी के ऊपर, मेज पर ढेर-ही-ढेर, देखकर लौट आना पड़ता है, मगर निराश होकर आस छोड़े तो कैसे?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book