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नारी विमर्श >> वे बड़े हो गए

वे बड़े हो गए

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15405
आईएसबीएन :81-7315-421-x

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास...

वे बड़े हो गए

1

घर-घर, घर-घर।

चक्का ऐसे घूम रहा है जैसे हाथ से नहीं, बिजली से घूम रहा हो। हाथ में बिजली जैसी शक्ति भरकर चक्का चलाने से सुलेखा का कंधा दुख रहा था, फिर भी घुमाए चली जा रही थी चक्के को। और करती भी क्या? कल शाम को ही इन सिले हुए कपड़ों की डिलिवरी जो देनी है। सुबह के समय तो घर के इतने काम रहते हैं कि साँस लेने तक की फुरसत नहीं मिलती। तो फिर किस बूते पर वह काम अधूरा छोड़कर उठ जाए?

जिस तरह से भी हो, अभी खत्म कर डालना है। हालाँकि मन चंचल होता जा रहा है । घड़ी का काँटा भी मानो उछल-उछलकर आगे भाग रहा है। थोड़ी देर में दस बजेंगे। बस, सिलाई जिस हालत में भी हो, छोड़कर जाना पड़ेगा। रात के भोजन के लिए तैयारी करनी पड़ेगी।

निशीथ नियमपरस्त है। उसके खाने के समय में कोई परिवर्तन नहीं होता है। जैसे ही दस बजे, यारों की महफिल उठाकर नीचे से ऊपर चला आता है। रात का खाना ऊपर के बरामदे में ही होता है। बच्चे रात में नीचे उतरना नहीं चाहते हैं । उतरने के आलस में कह देते हैं- भूख नहीं है।

देख-सुनकर यही इंतजाम कर लिया है सुलेखा ने। शाम से पहले ही सारा भोजन पकाकर ऊपर ले आती है और चाय-नाश्ता बनानेवाले स्टोव पर गरम-गरम रोटी सेंक लेती है। 

इस इंतजाम के बाद देखा गया है कि सबको भूख लग रही है। मन ही-मन हँसती है सुलेखा, मगर कह नहीं सकती। हँसी-हँसी में भी कह दे तो अभिमानी मझली बेटी अगले दिन ही बहाना बना देगी-नहीं खाना है, भूख नहीं है।

जब बच्चे छोटे थे, तब सुलेखा दिन-रात सोचा करती थी-उफ, किसी तरह ये बड़े हो जाएँ तो चैन की साँस लूँ।ऐसा सोचती थी, क्योंकि अकेले की जिम्मेदारी पर पाँच-पाँच बच्चों का झमेला कम तो नहीं! दिन रात के लिए नौकर-दाई रखने की हैसियत भी नहीं रही कभी।

कोई आधुनिक महिला शायद सुलेखा के बच्चों की संख्या सुनकर हैरान हो जाएगी, मगर सुलेखा के जमाने में 'सुखी परिवार' बनाने का सत्परामर्श बाजार में इतना चालू नहीं था।

एक प्रकार से बचपन में ही शादी हो गई थी। अर्थात् आजकल के हिसाब से नहीं तो उस जमाने में अठारह साल में कदम रखनेवाली लड़की को दुल्हन बनाने के लिए छोटी नहीं समझा जाता था।

नहीं समझा जाता था, तभी तो ब्याह होते ही गृहस्थी की चक्की में लगा दिया गया था उसे। तब से वह उसे ही घुमाए चली जा रही है। इधर सचमुच अल्हड़ होने के कारण ही ज्ञान-वृद्धि होने से पहले ही कुल पाँच अबोध बच्चों की माँ बन बैठी है। पढ़ना-लिखना भी हुआ कहाँ। गरीब विधवा की संतान, चाचा के घर पली-बढ़ी। अपने दो-दो भतीजों को पढ़ाने-लिखाने में ही चाचा की नाक में दम तो भतीजी को पढ़ाने का सवाल ही कहाँ !

फीस के पैसे जमा नहीं हो सके, इसलिए मैट्रिक की पूरी परीक्षा भी न दे सकी सुलेखा। उसके बाद तो ईश्वर की अपार अनुकंपा से ब्याह हो गया। शक्ल-सूरत अच्छी थी, इसलिए कृपा करना भी आसान हो गया। अतः शिक्षा का प्रसार स्कूल की चारदीवारी तक ही रह गया।

मगर निशीथ रंजन तो पढ़ा-लिखा युवक था। खैर, उसकी बात जाने दें। अब तो सुलेखा एड़ी-चोटी एक कर गृहस्थी की टूटी नाव को खींच खींचकर किनारे के करीब आ ही चुकी है। अब अगर इंतजार है तो इस बात का कि नाव पर सवार लोग छलाँग भरकर किनारे उतर पड़ें और अपने अपने रास्ते निकल जाएँ। अब आकर बीते हुए अनेक वर्षों की मूर्खता का हिसाब लगाना भी निरर्थक ही होगा।

और भी निरर्थक होगा-कौन अधिक मूर्ख था-इस बात पर तर्क उठाना।

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