नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
17
बाहरी ज्ञान से अनजाने की मामिन्द ही दौड़ रहा था।
एक आदमी से धक्का लगा। या तो धक्का लगा या उसने सागर को लपककर जोर से पकड़ लिया।
"क्या बात है? तुम चिनु के लड़के हो न? यहां कहां आये थे? तुम्हारी मां रो-धोकर बेहाल हो रही है बैठो-बैठो, यहां बैठ जाओ।"
देहात में खंडहरनुमा वीरान मकान की कोई कमी नहीं रहती। बी० एन० मुखर्जी यानी बिनु चाचा यानी विनयेन्द्र नाथ रास्ते के किनारे के उसी किस्म के एक मकान के घास उगे बरामदे पर सागर को बिठाकर कहते हैं, "सब कुछ सुनूंगा, पहले थोड़ा-सा पानी पी लो।"
अपने कंधे पर लटके श्री निकेतनी झोले से फ्लास्क निकाल सागर को पानी पिलाते हैं।
और सागर को लगता है कि इस क्षण अगर यह पानी न मिलता तो वह बेहोश होकर गिर गया होता।
सागर को इच्छा हो रही थी कि लेट जाए, मगर इस उम्र के लड़के के लिए इतना हल्का होना संभव नहीं है।
बहरहाल, अभी सागर के हाथ में चांद आ गया है, वनस्पति का आश्रय मिल गया है, अब सागर स्वयं को संयत कर सकता है।
विनयेन्द्र नाथ बोले, "अब बताओ तो, उस तरह क्यों भाग रहे थे जैसे भूत पीछा कर रहा हो?”
सागर ने अब उस आदमी की ओर गौर से देखा।
सफेद खादी का पाजामा, गलाबन्द खादी का कुरता और सफेद खादी की टोपी पहने इस लंबे-चौड़े कद के आदमी को देखकर उसके प्रति श्रद्धा-सम्मान जगना स्वाभाविक है। चेहरे पर एक दीप्त अभिजात्य की छाप है, खिड़की से देखने के दौरान सागर जिसका अनुमान नहीं लगा सका था, तेल-मालिश करने के दौरान भी इसका अहसास नहीं हुआ था।
सागर को अभी इस आदमी के सामने भय का कारण बताने में संकोच का अनुभव हुआ। सागर ने सोचा यह बताना बचकाना जैसा काम होगा।
दोपहर में सरकार भवन की लड़की लतिका के छद्म वेश में पिशाच बुलाकर ले गया था, यह बात भला इनके सामने कही जा सकती है?
उनकी वह उदात्त हंसी अब भी कानों में गूंज रही है। सुनकर वही हंसी हंसने लगेंगे।
सागर ने कहा, "दूसरे रास्ते से जाऊंगा, यह तय कर जाते-जाते रास्ता भूल गया।''
"रास्ता भूलकर इतनी दूर चले आये थे?”
विनयेन्द्र बोले, "तुम तो अजीब लड़का हो।...मैं सोच रहा था, तुम्हें 'कोपाई के पार घुमाने ले जाऊंगा-उधर तुम्हारी मां, नानी, भैया सभी खोजने निकले हैं। मैंने सोचा, मैं ही पीछे क्यों रहूं ! बहरहाल, किस्मत ने मेरा ही साथ दिया। कितना भागते हुए आ रहे थे ! गाय ने खदेड़ा था क्या?"
सागर गरदन झुका लेता है।
सागरे सोचता है, ग्रह टल गया।
गाय खदेड़े तो आदमी भागेगा ही, यह स्वाभाविक भी है।
लेकिन सागर का शनि भी अभी खांड़ा उठाये आ रहा है, यह क्या जानता था वह?
सागर अचकचाकर देखता है।
लतू के चेहरे पर टहटह लाली छायी हुई है, साड़ी बेतरतीब हो गई है, ब्लाउज पसीने से लथपथ हो गया है। लतू के खुले जूड़े की केशराशि सपेरे का पिटारा तोड़ बाहर निकल आए सांपों के मानिन्द फन काढ़कर हिल-डुल रही है।
लतू हांफ रही है।
लतू को इच्छा हो रही है कि लेट जाए।
फिर भी लतू छुरी की नोंक जैसी धारदार आवाज में बोल उठी, तू यहां है? दादू की गोद के पास खुशियों में मगन होकर बालगोपाल की तरह बैठा हुआ है? और तेरी खातिर मैं? यह देख, ठोकर खाने के कारण पैर के अंगूठे की क्या हालत हो गई है।”
“अरे, यह क्या? देखें।”
विनयेन्द्र चट से नीचे झुक गए।
सागर भी भयभीत होकर तोकता है। हालत सचमुच ही दुखदायक है।
अब भी खून टपक रहा है।
“इत्मीनान से बैठ जाओ।"
साहब दादू दुबारा अपने झोले में हाथ घुमाते हैं। दवा और रूई निकाल प्राथमिक चिकित्सा करते हैं।
सागर अवाक होकर कहता है, “यह सब आपके पास रहता है?”
इतनी देर तक आराम करने के बाद इत्मीनान के साथ बैठती हुई लतू बोली, "सिर्फ यही सब? क्या नहीं रहता? पेट की बीमारी, सिरदर्द की दवा से शुरू कर सांप काटने की दवा तक रहती है।”
“क्यों?"
“क्यों ! तुझे क्या यूं ही बुद्ध कहती हूं? यही तो साहव दादू को देहातियों की बस्ती में घूमने-फिरने के लिए जाने का वक्त है।...नदी के चर से होकर जाने पर मन्दिर के उस तरफ देहातियों की वस्ती है। दादू उन्हें बगैर पैसा लिये दवा देते हैं, उन लोगों के लिए जो स्कूल बनवा दिया है, उसमें पढ़ाते हैं, उन्हें शिक्षा-दीक्षा देते हैं। वे लोग ठीक भगवान की तरह दादू को भक्ति-भाव से देखते हैं।"
"अच्छा, बड़े-बुजुर्गों की तरह काफी लेक्चर झाड़ चुकी हो, अब तुम्हारा इतिहास सुनूं। किसने तुम्हें खदेड़ा था? शेर ने?”
"मुझे कौन खदेड़ेगा?" लतू भौंहों पर बल लाकर खनकती आवाज में कहती हैं, “उस वीर पुरुष से पूछिए।...दोपहर की धूप में मैं उसे जंगल के शॉर्टकट रास्ते से साधक काली दिखाने ले गई थी, उसे प्यास लगी थी इसलिए कच्चे नारियल वाले को पुकारकर ले आयी और वह उस आदमी के चुंघराले बाल और काले रंग को देखकर सरपट भाग खड़ा हुआ। कलकत्ता के लड़के का साहस देख लिया !"
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