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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15403
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

18

विनयेन्द्र एक पल चुप रहने के बाद गंभीर स्वर में कहते हैं, "तुमने तो यह सब नहीं बताया। ऐ....''

''सागर !''

''हां, सागर! तुमने तो कुछ और ही कहा।"

सागर का सिर छाती पर झुक जाता है।

लतू संदेह भरे स्वर में बोली, “क्या बताया था?"

''दूसरी ही बात बताई। लेकिन क्यों, बताओ तो। तुम चिनु के लड़के हो, तुम्हारी बात को मैं अहमियत न दें, ऐसा नहीं हो सकता। दूसरी ही बात क्यों बताई, इसका सबब जानना मेरे लिए जरूरी है।

सागर इस अर्द्धपरिचित आदमी के स्वर में अभिभावक की दृढ़ता देख रो पड़ता है। उस रुलाई में इतनी देर के भय, कष्ट आदि की प्रतिक्रिया भी है।

आखिर में सागर को अपने असत्य-कथन का कारण बताना ही। पड़ता हैं। शर्म ! शर्म की वजह से ही उल्टी-सीधी बातें कही हैं।

इस बीच दिन ढलने-ढलने की स्थिति में आ गया है, झलमलाते नीले सफेद आसमान में तरह-तरह के रंगों की विचित्रता का धूमधाम जैसे किसी रहस्यपूर्ण उत्सव का आयोजन कर रहा हो।

लतू अब आग की भट्ठी जैसी नहीं दिख रही है। उसके सर्वांग में एक कोमल लावण्य की छाया है। सागर उस समय भी ताकने का साहस नहीं कर पा रहा था और न ही अब कर पा रहा है।

लतू बड़ी-बूढ़ी औरत की तरह सिर पर हाथ रख कह रही है, “हाय रे कपाल ! तूने मुझे छद्म वेशधारी पिशाच समझा ! मैं मुंह-कटो कच्चा नारियल ले तेरे प्राणों का हरण करने आई थी ! सुनकर मुझे जहर खाने की इच्छा हो रही है !"

और, विनयेन्द्र का वही कहकहा आसमान की ओर बढ़कर चारों तरफ फैल जाता है।

"तेरी ही गलती है, तूने उसे पिशाच की कहानी क्यों सुनाई? वह बेचारा शहर का लड़का है, वह सब नहीं जानता।"

विनयेन्द्र ही सागर को घर पहुंचा आए। तेज आवाज में पुकारा, "चिनु, कहां हो? सन्देश खिलाओ। तुम्हारे लड़के को खोजकर ला दिया।''

अब तक चिनु हर घर का चक्कर लगाते हुए लड़के के लिए रो रही थी, देवी-देवता के सामने सिर पीट रही थी और मन-ही-मन प्रतिज्ञा की थी कि लड़का मिल जाएगा तो उसे डांट-फटकार नहीं सुनाएगी।

लेकिन ज्यों ही लड़का सही-स्वस्थ हालत में दिख पड़ा, लपककर डांटने-फटकारने आयी।

"तु अब तक कहां था, अभागा कही का?"

"नो-नो।”

विनयेन्द्र चिनु के सामने हाथ हिलाते हुए कहते हैं, नो माई गर्ल ! डांटना-फटकारना फिजूल है। पूछताछ भी नहीं कर सकती हो। तुम्हारा लड़का एक भयंकर जानलेवा आततायी के हाथ से बचकर भाग आया है और उसने अपनी जान बचायी है। उसका अभिनन्दन करो। और, मेरा सन्देश कहां है, ले आओ।"

लतिका ने सवेरे से बहुत बार कोशिश की है कि चटर्जी दादा के घर जाकर उनके नाती का हाल चाल जान आए। इतना तो पूछना ही होगा, क्यों बीर-बांकुरे, रात में नींद आयी थी?”

पूछने पर क्या होता कहना मुश्किल है।

लतू का सन्देह झूठ तो है नहीं।

सागर नामक लड़के को सचमुच ही पिशोध ने धर दबाया है। वरना उसकी हालत अब भी नशे में चूर जैसी क्यों होती? क्यों संपेरे का पिटारा तोड़ बाहर निकले आए फन काढ़े सांपों का एक झुंड निरन्तर उसकी आंखों के सामने हिलता-डुलता रहता है?

और क्यों हर वक्त उसके मर्म को बेधकर वह करुण आक्षेपध्वनि वायु में गूंज रही है, “हाय रे कपाल! तूने मुझे छद्म वेशधारी पिशाच समझी?...मुझे जहर खाकर मरने की इच्छा हो रही है!"

काश, उस तमाम घटना को स्लेट की लिखावट की तरह हाथ से पोंछा जा सकता तो कितना अच्छा रहता !

शायद लतू भी सोच रही थी, मैं कितनी गंवार हूं कि उसे पिशाची लीला की कहानी कहने गई। जाकर यही कहूंगी।

कहूंगी कि हम लोग पैदा होते ही यह सब सुनते आ रहे हैं। भूत-प्रेत, दैत्य-द्यनव किसी की भी कमी नहीं है हम लोगों के फूलझांटी गांव में।

लेकिन कहने को जा नहीं सकी।

घर के बैठकखाने के सामने एक व्यक्ति ने उसे रोका। गम्भीर स्वर में कहा, "कल सागर को उस तरह डरा क्यों दिया था?"

लतू ने आंख उठाकर देखा।

बातूनी लतू, दुःसाहसी लतू, मुखरा और प्रखरी लतू एकदम मूक हो गई। लतू ने आंखें झुका लीं।

लतू की उन आंखों के अन्तराल से गरम वाष्प ऊपर की ओर आने को तिलमिलाने लगा।

उस गंभीर गले से पुनः आवाज निकली, “वह तुम लोगों के इस गांव के लड़के-लड़कियों की तरह परिपक्व नहीं है, वह सब भय की कहानी कहना तुम्हारे लिए उचित नहीं था। साहब दादू से मुलाकात न हुई होती तो वह भारी मुसीबत में फंस सकता था।"

लतू के फटाफट शब्द निकलने वाले मुंह पर इस तरह ताला क्यों और कैसे बन्द हो गया?

लतू का चेहरा नीचे झुक गया। लतू की आंखों में हया-शरम टिक नहीं सकी।

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