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श्रंगार-विलास >> वयस्क किस्से

वयस्क किस्से

मस्तराम मस्त

प्रकाशक : श्रंगार पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 1220
आईएसबीएन :

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मस्तराम के मस्त कर देने वाले किस्से


इस बीच वह चार-पांच बार मेरे नूने को आगे से पीछे तक सहलाती और बीच-बीच में जब अपने हाथ से पूरी तरह पकड़ बोली तो मैं सर से पांव तक सिहर उठता। मुझे अजीब सी मस्ती आने लगी उसके नरम हाथ मुझे बेहद मजा दे रहा था गजब की मस्ती आ रही थी।
एकदम जादू सा लग रहा था पता नहीं उसके हाथ में क्या जादू था कि खुद अपनी नूनी को इस तरह अकड़ते मैंने कभी नहीं अनुभव किया था। आज सब दिनों से वह लम्बा और एवं मोटा हो गया।
उस समय मैं चौदह पार कर पंद्रहवें साल में गया था मैं वैसे भी हमारे पापा के उम्र के मर्द के कई लोगों को पेशाब करते या शौच करते देखा करता था। उनकी तुलना में मेरा नूना किसी मर्द से छोटा नजर नहीं आता था।
जहां तक अब लम्बा ही नजर आने लगा था मैं अपने पापा का भी कई बार देख चुका था। मेरा अब पापा से ज्यादा लम्बा नजर आने लगा था। मैं तो यही समझता कि उस औरत के हाथों में जादू है तभी तो उसके नरम हाथों में मेरी नूनी अब पूरा नूना बन गई थी। वह आण्टी बोली, तुम किसी मर्द का देखे हो।
वह इस प्रकार मुझसे पूछने लगी कि मैं मस्ती से पागल होने लगा, शर्म भी होने लगी और पहली-पहली बार मेरे साथ अजीबो-गरीब जैसा यह मजा होने के कारण मेरा बदन ऐंठने लगा तो वह हँस कर बोली–क्या सुरेश तुझे अच्छा लग रहा है?
हमने कुछ हिम्मत जुटाकर बोला...हाँ...हाँ...आप हाथ में ले ली है तो मुझे अच्छा लग रहा है।
वह बोली–खूब अच्छा लग रहा हैं...“मैं अटकती आवाज में बोला. हाँ...हाँ...बहुत अच्छा।”
वह हंसती बोली सुरेश तुम्हारा नूनी तो अब पूरे आदमी जैसी हो गई। अब तो यह इतना बड़ा हो गया कि तुम तो किसी औरत या लड़की को भी मजा दे सकते हो? वह इस प्रकार बोली कि मैं पानी-पानी होने लगा और चाह कर भी कुछ बोलना चाहे तो बोल नहीं सके।
उसने मेरी नूनी को सहलाते-सहलाते इतना लम्बा और कड़ा कर दिया कि मुझे अब अपने-आप से ही दर्द होने लगा। मैंने सोचा कि जल्दी से जल्दी कहीं जाऊँ और इसको शांत करूँ। एकदम लोहे के रॉड की तरह कड़ा होकर समझ नहीं आ रहा था कि मैं इसका क्या करूँ।
इतने में उधर से किसी की आने की आहट आने लगी तो वह समझ गई कि कोई और आ रही है, तब वह बोली सुरेश ठीक है, तुम इस समय घर जाओ और अपने हाथ से नूने को छोड़ती बोली–देखो कोई इधर आ रही है, शायद मेरी बेटी सोनम आ रही है। अब तुम घर जाओ, पर कल तुम ठीक दोपहर को शौच करने-आना तो हम तुम्हें बुला लेगी। तब इससे भी ज्यादा मजा क्या होता है, बताऊँगी।
इतना कह मुझे वहाँ से जाने का इशारा करने लगी। मैं फौरन अपना तमतमाया नूना किसी तरह लुंगी के भीतर घुसाकर और उसके ऊपर लुंगी की गाँठ बाँधकर उसे छुपाता हुआ फटाफट बाहर निकल अपने घर को चला आया। रास्ते भर मैं सोच रहा था कि आण्टी ने ऐसा क्यों किया? मुझे उस समय बेहद अच्छा लग रहा था। एक ऐसी मस्ती का अनुभव हो रहा था जिसके असर में मैं सब कुछ भूल गया था। यह आनंद मेरे नूनी के इर्द-गिर्द सिमट गया था और उसमें मेरा दिमाग और कामांग नशे में डूब गये थे।
अब तो उस समय से कुछ नजर ही नहीं आने लगा ना ही कोई काम करने में ही मन लगता, जब-जब उस औरत का नरम हाथ का स्पर्श महसूस करता मेरा लुंगी छोटी पड़ने लगती। पलभर में एक कड़क! रात तक मेरी हालत ऐसी हो गई कि सबके सोने के बाद लुंगी के अंदर ही अंदर मैंने अपने आप को तीन बार शांत किया।

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