श्रंगार-विलास >> यात्रा की मस्ती यात्रा की मस्तीमस्तराम मस्त
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मस्तराम को पता चलता है कि यात्रा में भी मस्ती हो सकती है।
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हमारी आँखे मिलीं तो वह मेरी तरफ देखती हुई अंदर की तरफ खिसकी। अब लगभग पक्का हो रहा था कि वह मुझे अपनी सीट पर बुला रही है। मुझे अब भी झिझक हो रही थी। चिंता भी थी कि कहीं गलतफहमी हुई तो बड़ी फजीहत हो सकती थी। इससे भी बड़ी समस्या यह थी कि वह अपनी बर्थ पर क्यों बुला रही थी! मुझे मामला कुछ अजीब सा लग रहा था, क्योंकि अगर उसका इरादा मुझसे कोई बात-वात करने का था तो उसके लिए बर्थ पर बुलाने की क्या जरूरत थी। वह तो वैसे ही की जा सकती थी। शायद वह सोते हुए लोगों को जगाना नहीं चाहती थी।मैं अपनी जगह से बिलकुल भी नहीं हिला। बल्कि आँखे बंद करके सोने का दिखावा करने लगा। ऊहा-पोह में पड़ा हुआ मैं सोच ही रहा था कि क्या करूँ, तभी वह अपनी बर्थ से लोहे के डण्डे वाली सीढ़ियों से उतरती हुई मेरी ओर आई और मेरे दायें हाथ के लटके हुए पंजे पर अपनी हथेली से थपकी मार कर पलटी और वापस अपनी बर्थ पर चढ़ने लगी।
अब तो कुछ न कुछ करना ही था, क्योंकि यदि अब भी मैं अपनी बर्थ पर ही पड़ा रहता तब तो वह बड़ी असभ्यता होती। मुझे उसका इशारा समझते हुए अब उसकी बर्थ पर जाना ही होगा। बाथरूम से लौटने के बाद अपने जूते मैंने अभी तक उतारे नहीं थे, इसलिए सबसे पहले तो मैंने अपने जूते उतारे और उन्हें अपनी बर्थ के एक कोने में रख दिया। इसके बाद एक हल्के से झटके में ही अपनी साइड वाली बर्थ से उसकी बर्थ पर लपक कर पहुँच गया।
उसकी बर्थ पर पहुँचने के बाद अपनी पीठ बर्थ की साइ़़ड वाली दीवाल से टिकाने के बाद मैं किनारे ही बैठा रहा। अंधेरे में कुछ मिनटों के लिए हम एक दूसरे को देखते रहे, फिर इससे पहले कि मैं कुछ कर पाता वह एकदम से अपनी बाहें मेरे गले में डालकर झूल गई। स्लीपर क्लास की बर्थ पर जगह तो वैसे ही बहुत कम होती है। बैठने के कारण मेरे घुटने तो मुड़े थे ही। उसने मेरी बायीं जाँघ पर अपनी गर्दन टिका ली और अपनी दोनों बाँहों के सहारे अपने ओंठों को मेरे ओंठों के पास ले आई।
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