श्रंगार-विलास >> यात्रा की मस्ती यात्रा की मस्तीमस्तराम मस्त
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मस्तराम को पता चलता है कि यात्रा में भी मस्ती हो सकती है।
बड़े ही नर्म हाथों से और बहुत सावधानी से मेरी हथेली चित्रों से सीखी हुए
जानकारी को साक्षात् अनुभव करने लगी। अचानक मुझे इस बात की तीव्र इच्छा होने
लगी कि यदि मैं उसे दिन की रोशनी में या फिर साफ रोशनी में देख सकता तब तो इसका
मजा कई गुना हो जाता। मैं चश्मा नहीं पहनता हूँ और आसानी से सबकुछ देख पाता
हूँ, लेकिन पता नहीं क्यों अंधेरे में, या धुँधलके में मुझे कोफ्त होने लगती
है। बल्कि एक अजीब सी छटपटाहट होती है। मेरा मन कर रहा है कि यहाँ झमाझम रोशनी
हो जाये और मैं उसे फुर्सत से देख सकूँ। लेकिन!
लगभग ऐसी ही छटपटाहट मुझे उसके कुर्ते के गले में कम आजादी मिलने के कारण हो
रही थी। थोड़ी देर पहले मैं रोशनी से आतंकित था, अब अंधेरे से। मैं बहुत थोड़ी
देर ही इस तरीके से काम चला पाया। उसके हाथ ने मुझे उसे छूने की न केवल इजाजत
दी थी, बल्कि मुझे खुद ही बुलाकर इज्जतअफजाई भी की थी।
निमंत्रण को स्वीकार करते हुए मैंने अपनी हथेली कुर्ते के गले से निकाली। आँखों
से तो कुछ काम बनना नहीं था, इसलिए मैंने हाथों की उंगलियों के सहासे से उसे
देखने का मन बनाया। इसलिए अब शुरु से शुरु किया। मैंने अपने आपको आराम से बायें
हाथ की कोहनी पर टिकाया और सबसे पहले उसके ओंठों पर उंगली फिराकर दस्तक दी।
पाँच दिन पहले वह अचानक उल्कापात की तरह मेरे जीवन में आ गई थी। सबसे पहले
मैंने उसे परीक्षा के पहले दिन देखा था। मैं पहली बार किरी परीक्षा के निरीक्षक
का काम कर रहा था। इसलिए सावधान भी था और उत्साहित भी। एक छात्र की तरह
परीक्षाकक्ष में हमेशा तनाव की स्थिति रहती है। परीक्षा से पहले भी, परीक्षा के
दौरान भी और उसके बाद भी। इस तरह निरपेक्ष भाव से कभी परीक्षा कक्ष में नहीं
रहा था। इसलिए परीक्षा में कितनी और कौन सी लड़कियाँ आईं है इस बात पर मेरा
अधिक ध्यान नहीं था।
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