श्रंगार-विलास >> यात्रा की मस्ती यात्रा की मस्तीमस्तराम मस्त
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मस्तराम को पता चलता है कि यात्रा में भी मस्ती हो सकती है।
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इस तरह बिना किसी पू्र्वसूचना के इस तरह अचानक स्थिति बदल जाने कूपे की दीवार
से सटे होने की बजाय मैंने पाया कि मेरा दायाँ पैर हवा में लटकता हुआ डिब्बे की
कॉरीडोर में पहुँच गया था। इस समय यदि कोई वहाँ से निकल रहा होता तो मेरा पैर
निश्चित ही सीधा उसके मुँह पर लगता! यह अलग बात है कि रात के इस समय रेल के
चालक के अलावा शायद कुछ पत्तेबाज या नशेबाज ही अब भी जाग रहे होंगे। इसके साथ
रात में उठकर बाथरूम जाने वाले का कौन सा समय निश्चित होता है।
इसके अलावा उसके खींचने के बाद भी मैं कुछ पीछे ही रह गया था और अब तक मेरा सिर
लगभग उसके पेट और छाती के बीच में पहुँच रहा था। मैंने सोचा कि वह अपना किसिंग
का कार्यक्रम जारी रखना चाहती होगी, साथ ही मुझे कॉरीडोर में लटके पैरों को भी
अंदर करना था। वरना हमारी पोल खुल सकती थी, जिसमें अब कोई खास मजा नहीं आना था।
यह सोचते हुए मैंने अपने पैर को अंदर किया और आगे खिसक कर अपने मुँह को उसके
मुँह की तरफ बढ़ाया।
लेकिन अब तक स्थिति कुछ बदल चुकी थी। मुझे लगता है कि उसकी आँखें बिल्ली जैसी
क्षमता रखती थीं, क्योंकि बड़े ही सधे हाथ से मेरे सिर को पीछे अपने हाथ से
थामते हुए अपने बायीं छाती पर खींच कर दबाया। इस नये आदेश का पालन करते हुए
मैंने हवा में ही अपना रुख बदला और मेरी ठोड़ी कुर्ते के ऊपर उसकी बायीं छाती
में धंस गई। इस घटना ने मुझे साफ-साफ बता दिया कि अपनी बर्थ पर मेरी वापसी अभी
जल्दी संभव नहीं थी। यहाँ तक कि अपनी बर्थ पर मुझे बुलाने की मंशा की गहराई भी
जाहिर हो गई थी।
यह सही बात है कि पहले-पहल मैं इस आमंत्रण के मंतव्य के विषय में शंकित था,
लेकिन अब तक मक्खी गुड़ की महक पा गई थी। इतना आसान नहीं था उसकी महक से बचना।
बल्कि मक्खी का खुद का मन अब गुड़ का रसास्वादन करने का मूड बना चुका था।
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