श्रंगार-विलास >> यात्रा की मस्ती यात्रा की मस्तीमस्तराम मस्त
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मस्तराम को पता चलता है कि यात्रा में भी मस्ती हो सकती है।
बहरहाल, सामने की बर्थ वाली खाँसी की आवाज ने मुझे तो डरा ही दिया। उसे शायद
मामूली उलझन हुई थी। लेकिन उसके आगे जो हुआ, उसने तो खेल का लेवल ही कहीं और
पहुँचा दिया। हुआ यों कि किस करते हुए वह अचानक रुकी और एक झटके में मुझसे अलग
होकर उठ बैठी। आवाज से मैं पहले ही हड़का हुआ था। मन ही मन सोचने लगा कि
सेकेण्ड के कितने भाग में बिना किसी आवाज के अपनी बर्थ पर पहुँच पाऊँगा। उसके
बाद तो अगर कोई हंगामा करना भी चाहे तो उनको बरगलाया जा सकता है।
परंतु, यह तो मेरी सोच थी। उसने तो कुछ और ही सोच रखा लगता था। अंधेरे में बर्थ
के कोने में कुछ करती महसूस हुई। मैं भागने के लिए बिलकुल तैयार था, जबकि उसने
एक चादर मेरे ऊपर फेंकी और मुझे गले से खींचती हुई बर्थ पर पीठ के बल लेट गई।
उसकी इस हरकत का कुल जमा असर यह हुआ, कि मैंने अपने आप को उसके ऊपर अधलेटी
स्थिति में पाया। चादर मेरी पीठ से होती हुई उसके मुँह तक पहुँच रही थी, जिसे
उसने खींचते हुए सिर तक ओढ़ लिया। अँधेरा तो वैसे ही थी, रात के सवा डेढ़ बजे
का समय हो रहा था, लेकिन अब चादर के अंदर हम दोनों दुनिया की नजर से और भी ओझल
हो गये होंगे।
लगता है कि खुद अच्छे खासे उन्माद की हालत में थी, लेकिन इतना होश उसे अब भी था
कि वह मेरी झिझक और उदासीनता को भाँप गई थी। आगे के कार्यक्रम में वह ऐसे फालतू
खललों को नहीं चाहती थी। यदि मेरा दिमाग ऐसे ही बार-बार भटकता रहा, तब जो कुछ
वह चाहती थी वह शायद ठीक से न हो पाता। कुछ और नहीं तो, कम-से-कम उसने चादर
उढ़ा कर, मेरे दिमाग को एक लॉलीपाप पकड़ा दी थी।
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