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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


पूर्वकाल में भगवान् शिव ने भस्म शब्द का ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था। जैसे राजा अपने राज्य में सारभूत कर को ग्रहण करता है जैसे मनुष्य सस्य आदि को जलाकर (राँधकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थों को भारी मात्रा में ग्रहण करके जलाता, जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर वस्तु से स्वदेह का पोषण करता है उसी प्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिव ने भी अपने में आधेयरूप से विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है। प्रपंच को दग्ध करके शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया है। राख, भभूत पोतने के बहाने जगत्‌ के सार को ही ग्रहण किया है। अपने शरीर में अपने लिये रत्नस्वरूप भस्म को इस प्रकार स्थापित किया है- आकाश के सारतत्त्व से केश, वायु के सारतत्त्व से मुख, अग्नि के सारतत्त्व से हृदय, जल के सारतत्त्व से कटिभाग और पृथ्वी के सारतत्त्व से घुटने को धारण किया है। इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के साररूप हैं। महेश्वर ने अपने ललाट में तिलकरूप से जो त्रिपुण्ड्र धारण किया है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का सारतत्त्व है। वे इन सब वस्तुओं को जगत्‌ के अभ्युदय का हेतु मानते हैं। इन भगवान् शिव ने ही प्रपंच के सार-सर्वस्व को अपने वश में किया है। अत: इन्हें अपने वश में करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जैसे समस्त मृगों का हिंसक मृग सिंह कहलाता है और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं है अतएव उसे सिंह कहा गया है।

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