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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


शकार का अर्थ है नित्यसुख एवं आनन्द, इकार का अर्थ है पुरुष और वकार का अर्थ हे अमृतस्वरूपा शक्ति। इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता है। अत: इस रूप में भगवान् शिव को अपना आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये; अत: पहले अपने अंगों में भस्म मले। फिर ललाट में उत्तम त्रिपुण्ड धारण करे। पूजाकाल में सजल भस्म का उपयोग होता है और द्रव्यशुद्धि के लिये निर्जल भस्म का। गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणों का अवरोध करते हैं-दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूप का आश्रय लेकर स्थित हैं। गुरु विश्वासी शिष्यों के तीनों गुणों को पहले दूर करके फिर उन्हें शिवतत्त्व का बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं। गुरु की पूजा परमात्मा शिव की ही पूजा है। गुरु के उपयोग से बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करनेवाला होता है। गुरु की आज्ञा के बिना उपयोग में लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है, जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तु का उपयोग करता है। गुरु से भी विशेष ज्ञानवान् पुरुष मिल जाय तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिये। अज्ञानरूपी बन्धन से छूटना ही जीवमात्र के लिये साध्य पुरुषार्थ है। अत: जो विशेष ज्ञानवान् है, वही जीव को उस बन्धन से छुड़ा सकता है।

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