गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण शिवपुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
साधक को चाहिये कि वह पाँच लाख जप करने के पश्चात् भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिये महाभिषेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिवभक्तों का पूजन करे। भक्त की पूजा से भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। शिव और उनके भक्त में कोई भेद नहीं है। वह साक्षात् शिवस्वरूप ही है। शिवस्वरूप मन्त्र को धारण करके वह शिव ही हो गया रहता है। शिवभक्त का शरीर शिवरूप ही है। अत: उसकी सेवा में तत्पर रहना चाहिये। जो शिव के भक्त हैं, वे लोक और वेद की सारी क्रियाओं को जानते हैं। जो क्रमश: जितना-जितना शिवमन्त्र का जप कर लेता है उसके शरीर को उतना- ही-उतना शिव का सामीप्य प्राप्त होता जाता है, इसमें संशय नहीं है। शिवभक्त स्त्री का रूप देवी पार्वती का ही स्वरूप है। वह जितना मन्त्र जपती है, उसे उतना ही देवी का सानिध्य प्राप्त होता जाता है। साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्ति का पूजन करे। शक्ति, वेर तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा मिट्टी आदि से इनकी आकृति का निर्माण करके प्राणप्रतिष्ठापूर्वक निष्कपट भाव से इनका पूजन करे। शिवलिंग को शिव मानकर, अपने को शक्तिरूप समझकर, शक्तिलिंग को देवी मानकर और अपने को शिवरूप समझकर, शिवलिंग को नादरूप तथा शक्ति को बिन्दुरूप मानकर परस्पर सटे हुए शक्तिलिंग और शिवलिंग के प्रति उपप्रधान और प्रधान की भावना रखते हुए जो शिव और शक्ति का पूजन करता ह्रै वह मूलरूप की भावना करने के कारण शिवरूप ही है। शिवभक्त शिव-मन्त्र रूप होने के कारण शिव के ही स्वरूप हैं। जो सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। जो शिवलिंगोपासक शिवभक्त की सेवा आदि करके उसे आनन्द प्रदान करता है, उस विद्वान् पर भगवान् शिव बड़े प्रसन्न होते हैं। पाँच, दस या सौ सपत्नीक शिवभक्तों को बुलाकर भोजन आदि के द्वारा पत्नीसहित उनका सदैव समादर करे। धन में, देह में और मन्त्र में शिवभावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्ति का स्वरूप जानकर निष्कपट- भाव से उनकी पूजा करे। ऐसा करनेवाला पुरुष इस भूतलपर फिर जन्म नहीं लेता।
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