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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


चंचुला ने कहा- ब्रह्मन्! मैं अपने धर्म को नहीं जानती थी। इसलिये मेरे द्वारा बड़ा दुराचार हुआ है। स्वामिन्! मेरे ऊपर अनुपम कृपा करके आप मेरा उद्धार कीजिये। आज आपके वैराग्य-रस से ओतप्रोत इस प्रवचन को सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है। मैं काँप उठी हूँ और मुझे इस संसार से वैराग्य हो गया है। मुझ मूढ़चित्तवाली पापिनी को धिक्कार है। मैं सर्वथा निन्दा के योग्य हूँ। कुत्सित विषयों में फंसी हुई हूँ और अपने धर्म से विमुख हो गयी हूँ। हाय! न जाने किस-किस घोर कष्टदायक दुर्गति में मुझे पड़ना पड़ेगा और वहाँ कौन बुद्धिमान् पुरुष कुमार्ग में मन लगाने वाली मुझ पापिनी का साथ देगा। मृत्युकाल में उन भयंकर यमदूतों को मैं कैसे देखूँगी? जब वे बलपूर्वक मेरे गले में फंदे डालकर मुझे बाँधेंगे, तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकूँगी। नरक में जब मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े किये जायँगे, उस समय विशेष दुःख देने वाली उस महायातना को मैं वहाँ कैसे सहूँगी? हाय! मैं मारी गयी! मैं जल गयी! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकार से नष्ट हो गयी; क्योंकि मैं हर तरह से पाप में ही डूबी रही हूँ। ब्रह्मन्! आप ही मेरे गुरु, आप ही माता और आप ही पिता हैं। आपकी शरणमें आयी हुई मुझ दीन अबला का आप ही उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये।

सूतजी कहते हैं- शौनक! इस प्रकार खेद और वैराग्य से युक्त हुई चंचुला ब्राह्मणदेवता के दोनों चरणों में गिर पड़ी। तब उन बुद्धिमान् ब्राह्मण ने कृपापूर्वक उसे उठाया और इस प्रकार कहा।

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