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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


इसके पश्चात् भस्म-धारण तथा त्रिपुण्ड्र की महिमा एवं विधि बताकर सूतजी ने फिर कहा- महर्षियो! इस प्रकार मैंने संक्षेप से त्रिपुण्ड्र का माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियों के लिये गोपनीय रहस्य है। अत: तुम्हें भी इसे गुप्त ही रखना चाहिये। मुनिवरो! ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म से तीन तिरछी रेखाएँ बनायी जाती हैं, उन्हीं को विद्वानों ने त्रिपुण्ड्र कहा है। भौंहों के मध्य भाग से लेकर जहाँ तक भौंहों का अन्त है उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाट में धारण करना चाहिये। मध्यमा और अनामिका अंगुली से दो रेखाएँ करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोमभाव से की गयी रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है अथवा बीचकी तीन अंगुलियोंसे भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्तिभाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करे। त्रिपुण्ड्र अत्यन्त उत्तम तथा भोग और मोक्ष को देनेवाला है। त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं जो सभी अंगों में स्थित हैं; मैं उनका परिचय देता हूँ। सावधान होकर सुनो। मुनिवरो! प्रणव का प्रथम अक्षर अकार गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रातःसवन तथा महादेव - ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं, यह बात शिव-दीक्षापरायण पुरुषों को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये। प्रणव का दूसरा अक्षर उकार दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्त्वगुण, यजुर्वेद, मध्यदिनसवन, इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा तथा महेश्वर - ये दूसरी रेखा के नौ देवता हैं। प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन तथा शिव - ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं। इस प्रकार स्थान-देवताओं को उत्तम भक्तिभाव से नित्य नमस्कार करके स्नान आदि से शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुण्ड्र धारण करे तो भोग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। मुनीश्वर! ये सम्पूर्ण अंगों में स्थान-देवता बताये गये हैं; अब उनके सम्बन्धी स्थान बताता हूँ भक्तिपूर्वक सुनो। बत्तीस, सोलह, आठ अथवा पाँच स्थानों में त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथों, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्वभाग, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों ऊरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर - ये बत्तीस उत्तम स्थान हैं इनमें क्रमश: अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल तथा आठ वसुओं का निवास है। धर, ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास - ये आठ वसु कहे गये हैं। इन सबका नाममात्र लेकर इनके स्थानों में विद्वान् पुरुष त्रिपुण्ड्र धारण करे।

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