गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण शिवपुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
महर्षियो! भस्म सम्पूर्ण मंगलों को देनेवाला तथा उत्तम है; उसके दो भेद बताये गये हैं उन भेदों का मैं वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो। एक को 'महाभस्म' जानना चाहिये और दूसरेको 'स्वल्पभस्म'। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। वह तीन प्रकार का कहा गया है- श्रौत, स्मार्त और लौकिक। स्वल्पभस्म के भी बहुत-से भेदों का वर्णन किया गया है। श्रौत और स्मार्त भस्म को केवल द्विजों के ही उपयोग में आने के योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है वह अन्य सब लोगों के भी उपयोग में आ सकता है। श्रेष्ठ महर्षियों ने यह बताया है कि द्विजों को वैदिक मन्त्र के उच्चारणपूर्वक भस्म धारण करना चाहिये। दूसरे लोगों के लिये बिना मन्त्र के ही केवल धारण करने का विधान है। जले हुए गोबर से प्रकट होनेवाला भस्म आग्नेय कहलाता है। महामुने! वह भी त्रिपुण्ड्र का द्रव्य है ऐसा कहा गया है। अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म का भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिये। अन्य यज्ञ से प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारण के काम में आ सकता है। जाबालोपनिषद् में आये हुए 'अग्नि:' इत्यादि सात मन्त्रों द्वारा जलमिश्रित भस्म से धूलन (विभिन्न अंगोंमें मर्दन या लेपन) करना चाहिये। महर्षि जाबालि ने सभी वर्णों और आश्रमों के लिये मन्त्र से या बिना मन्त्र के भी आदरपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड्र लगाने की आवश्यकता बतायी है। समस्त अंगों में सजल भस्म को मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुण्ड्र लगाना - इन कार्यों को मोक्षाथीं पुरुष प्रमाद से भी न छोड़े, ऐसा श्रुतिका आदेश है। भगवान् शिव और विष्णु ने भी तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवी ने भी वाणी द्वारा इसकी प्रशंसा की है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जातिभ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्ड्र के रूप में भस्म धारण किया है।
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