जीवनी/आत्मकथा >> सिकन्दर सिकन्दरसुधीर निगम
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जिसके शब्दकोष में आराम, आलस्य और असंभव जैसे शब्द नहीं थे ऐसे सिकंदर की संक्षिप्त गाथा प्रस्तुत है- शब्द संख्या 12 हजार...
वह अक्सर कहा करता था, ‘‘जीवन के लिए मैं पिता का ऋणी हूं और जीवन को खूबसूरती से जीने के लिए अपने गुरुओं का। अतः अरस्तू के लिए जो भी करूं कम है।’’
इलियड से उसे इतना मोह था कि जीवन भर उसकी प्रति उसके साथ बनी रही। अरस्तू की दार्शनिकता से प्रभावित होकर अपने बाद के जीवन में अपने अभियानों के दौरान उसने दार्शनिकों को सदैव अपने साथ रखा ताकि वह राजनीतिक मामलों में उनसे सलाह ले सके। अरस्तू और उसके राजनीतिक मतभेद थे और इस असहमति के लिए वे सहमत थे। अरस्तू नगर राज्यों का पोषक था, एशिया के बर्बरों का नाश चाहता था। सिकंदर नगर राज्यों का समर्थक नहीं था, वह साम्राज्यवादी नीति का पोषक था। एशियाई लोगों के बर्बर होने की बात शुरू में उसने मान ली थी पर जब वह उनसे मिला तब उसके विचार बदल गए। उसे लगा समस्त संसार के लोग भाई-भाई हैं। इसी धारणा से प्रेरित होकर सिकंदर ने पूरे विश्व को एक करना चाहा, तथाकथित ‘बर्बरों’ की कन्याओं से सभ्य यूनानियों के विवाह कराए। स्वयं भी दो विवाह किए। कैसी विडम्बना की बात है कि अर्ध-सभ्य राज्य का राजकुमार पूरे विश्व को एकीकृत करने की सोचे जबकि उसका बुद्धिमान और संस्कारित अध्यापक यह संकीर्ण दृष्टि रखे कि नगर राज्य सभ्यता की एकमात्र ईकाई हैं और संसार बर्बर और सभ्य लोगों में बंटा हुआ है।
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