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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख
संस्कृत में गांठ को ´ग्रंथि´ कहते हैं। मानवीय अवयवों को जीवन रस से सिंचित करने वाली ´स्राव-ग्रंथियां´ होती हैं। जीवन धारण करने के लिए इनका सदैव क्रियाशील बने रहना आवश्यक होता है। परंतु ´मनोग्रंथि´ को कतई सुखकर नहीं माना जाता। इसे मनोवैज्ञानिक एक प्रकार का रोग मानते हैं जो विपरीत परिवेश, निकृष्ट चिंतन से जन्म लेता है।
एक और ऐसी गांठ होती है जो यद्यपि मिथ्या होती है परंतु छुटाए नहीं छूटती। तुलसीदास कह गए हैं, जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई, जदपि मृषा छूटत कठिनई। ईश्वर का अंश जीव चेतन होता है और माया को जड़ पदार्थ माना जाता है। अर्थात् जब जीव माया के वश में हो जाता है तब यह गांठ पड़ जाती है तुलसी के अनुसार इस गांठ से मुक्ति का सरल उपाय ´भक्ति´ है।
बहुत सी गांठें ऐसी होती हैं जो हाथ से या किसी भावना से खोले नहीं खुलतीं। फ्रिगिया देश के गारडियन नाम के बादशाह ने अपने रथ में एक ऐसी ही गांठ लगा रखी थी जिसे कोई खोल नहीं पाता था और वह अविजित बना रहता था। सिकंदर ने तलवार से काटकर वही गांठ खोली और उसे पराजित किया।
समास रूप में व्यवहृत होने पर गांठ घटकर ´गठ´ रह जाती है जैसे गठजोड़, गठबंधन। आजकल गठबंधन सरकारों का खूब प्रचलन है। गठबंधन एक प्रकार का पक्का नाता या अटूट संबंध होता है। परंतु उद्देष्यों की पवित्रता का अभाव हो तो गठबंधन स्थायी नहीं रहता। अपने स्वार्थों से प्रेरित हो सदस्य संबंध तोड़ने की धमकी देने लगते हैं और अंततः गठबंधन टूट भी जाता है और यह पक्का नाता नहीं रह पाता। राजनीति शब्दों की आत्मा तक को भ्रष्ट कर देती है।
बंधी हुई चीज गांठ से गट्ठर हो जाती है जैसे कपड़ों का गट्ठर, लकड़ी का गट्ठर। गट्ठर तभी बनता है जब उसमें गांठ लगी हो। यदि किसी जोड़ में गांठें मार दी जाएं तो वह जोड़-गांठ या सिलाई हो जाती है। इससे एकत्र करने की क्रिया का भाव निकलता है। गरीब लोग जोड़-गांठ कर पैसे एकत्र करके ही कुछ खरीद पाते हैं। ´गांठने´ में आदर-भाव छिपा रहता है लेकिन अक्सर इसका प्रयोग नकारात्मक भाव में होता है जैसे अधिकारी मंत्री को नहीं गांठता। सकारात्मक भाव में यह सिलाई के अर्थ में प्रयुक्त होता है जैसे जूते गांठना।
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