नई पुस्तकें >> लेख-आलेख लेख-आलेखसुधीर निगम
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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख
गांठ में रस होने का कारण यह भी है कि, जैसा कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है वह स्वयं प्रत्येक जोड़ के बीच गांठ की तरह स्थित हैं। शादी के समय गांठ लगाते हुए कामना की जाती है कि यह पवित्र गांठ कभी न खुले, सदैव बंधी रहे। हां दुनिया के थपेड़ों को सहते-सहते पति-पत्नी में कभी कटुता आ जाय, उनके मन शंकाओं के बादलों से धिर जायं तो दिल की सफाई के लिए उनके मन की गांठ का खुलना आवश्यक हो जाता है।
परंतु भगवान के ´गांठ में स्थित´ होने की बात ज़रा ठीक से समझ लें। शुरू से ही शुरू करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है ´´समासों में मैं द्वन्द्व हूं।´´ ´द्वन्द्व´ अर्थात जोड़ने वाला समास, संयोजक समास। वे कहते हैं, ´´मैं व्यक्ति को व्यक्ति से, जीवन को जगत् से, आत्मा को विश्व से जोड़ता हूं, प्रत्येक जोड़ के बीच गांठ की तरह स्थित हूं, सारी जीवन लीला ही एक रास-नृत्य है।´´ भक्तजन क्षमा करें, यह भगवद् वाक्य आज सटीक नहीं रह गया है। अब तो सब जगह ´द्वन्द्व´ है, पर समास गायब है। अतः समास के अभाव में यह द्वन्द्व अंतर्द्वन्द्व बन गया है। अब द्वन्द्व का अर्थ युग्म नहीं कलह हो गया है। और हो भी क्यों न, कलह तो कलि की अधिष्ठान भूमि है, घृणा, शंका, कुटिलता और संत्रास की लीला भूमि है। इन सभी भावों का अनुभाव है ´गांठ´।
बिहारी कहते हैं कि मन में गांठ ईर्ष्या से पड़ती है। चलो यह अच्छा हुआ जो उन्होंने बता दिया कि ऐसी गांठ किसी सज्जन के नहीं बल्कि ´दुरजन´ के हृदय में पड़ती है। दुर्जन व्यक्ति किसी को फलता-फूलता नहीं देख सकता। जहां उसने देखा कि दो प्रेमी हृदयों की प्रीति जुड़ गई वहीं उसके हृदय में समझो गांठ पड़ गई। यदि वह अपनी ´गांठ´ लेकर चुप बैठा रहता है तो स्थिति सामान्य रहती है परंतु गांठ से प्रेरित जब वह खलनायक बन जाता है तो बुराई या वैमनस्य बढ़ने लगता है यानी गांठ पर गांठ पड़ने लगती है। ऐसी स्थितियों का सृजन करने में हिंदी फिल्मवाले बड़े माहिर होते हैं। खलनायक का अंत देखने पर यह बात गांठ बांधने लायक होती है कि ईर्ष्या बुरी चीज होती है।
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