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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख
लाठी
लाठी आमतौर पर बांस की वह लंबी लकड़ी होती है जो गांठों को छीलकर बनाई जाती है और टेकने, मारपीट करने, राजनीतिक आंदोलन का माध्यम बनने, पुलिस द्वारा भांजी जाने, तथा मुहावरे के प्रयोग करने में काम आती है। लाठी जन्म से जंगली है परंतु कर्म से सभ्य कहलाने वाले मनुष्य के साथ रहती है। मनुष्य से श्रेष्ठ मानी जा सकती है क्योंकि एक तो उससे ऊंची होती है, दूसरे उसके आगे रहती है- चाहे कंधे पर चढ़ी बैठी हो या हाथ में हो, आगे या ऊपर झांकती रहेगी- ताकि इन्सान उसके अस्तित्व के प्रति सचेत रहे।
लाठी का आदिपूर्वज डंडा है जो कद में छोटा होता है। यह मानव-सभ्यता के पूर्व की चीज है। आदिमानव डंडे की सहायता से कंद-मूल खोदकर, फल तोड़कर अपना भोजन जुटाता था। जब वह शिकारी बन गया तो उसने पत्थर के, और बहुत बाद में लोहे के, विभिन्न उपकरण लगाकर डंडे को कुल्हाड़ी का रूप दे दिया, जो आज तक चला आ रहा है। जानवरों के अलावा दूसरों को मारने के लिए वह डंडे का सहारा लिया करता था। कृषि युग में डंडे से कुदाल और फावड़े बन गए। लाखों साल बाद डंडे का मूल रूप आज भी भारतीय पुलिस के पास सुरक्षित है। पुलिस अपना कर्तव्य-निर्वाह डंडे से ही करती है। यह डंडा उसे सरकार द्वारा भर्ती के समय यह कहकर दिया जाता है कि इससे हमारी रक्षा के लिए समाज में कैसे भी कानून और व्यवस्था बनाए रखो। नेहरू जी को ऐतिहासिकता से बड़ा प्रेम था। इतिहास पर आधारित कई पुस्तकें भी लिखीं। इसी प्रेम के चलते वह अक्सर एक छोटा डंडा हाथ में रखते थे हालांकि प्रकृति से वह अहिंसावादी थे।
समाज में जब राजा का आविर्भाव हुआ तो राजा अपने पुराने दोस्त डंडे को नहीं भूला, क्योंकि इसी के बल पर वह राजा बना था। राजा के साथ-साथ डंडे का भी उत्कर्ष हुआ। वह राजा का डंडा न कहलाकर ´राजदंड´ कहलाया। संस्कृत में डंडे को ´दंड´ कहते हैं। राजदंड राजा के न्याय का यानी सत्ता का प्रतीक हो गया। पुलिस द्वारा धरे गए तथाकथित अपराधियों से जुर्म कबूल करवाने में लाठी-डंडे का प्रश्रय लिया जाता जिसे ´थर्ड डिग्री´ कहा गया। डंडा यानी दंड सजा का पर्याय हो गया। आगे चलकर प्रत्येक प्रकार की सजा को, चाहे वह आर्थिक जुर्माना हो, खेतों में बेगार हो, हाथ पैर काटने की सजा हो या फांसी की सजा हो, सबको दंड कहा जाने लगा। लेकिन जब यह ´दंड´ नीति से जुड़ गया तो दंडनीति यानी राजनीति बन गया।
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