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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781613016374

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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख

घास और उसकी जड़

जब से ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी का नाम ´तृणमूल´ रखा है मैं अक्सर गहन चिंतन में उतरा हूं कि ´तृण´ यानी घास में अवश्य ऐसी बात होगी कि मिस बनर्जी को उस पर ममता आ गई और उन्होंने उसे राष्ट्रीय पहचान दी। कई साल पहले टी.वी. पर एक पहलवान को घास खाते देखा था। हो सकता है कि ममता जी ने भी उसे देखकर प्रेरणा ली हो। खैर ´तृणमूल´ और ´पहलवान´ दोनों के माध्यम से मेरी रुचि घास के संबंध में पल्लवित हुई। आइए पहले अपने घास खाऊ पहलवान असलम से दो-दो हाथ कर लें फिर आगे बढ़ें।

असलम पहलवान, बकौल खुद, एक गरीब आदमी हैं। दोनों टेम की पहलवानी गिजा के लिये उनके पास पैसे नहीं होते। यानी आप चुनाव लड़ने चलें और आपके पास काला या सफेद किसी भी रंग का धन न हो। चंदे पर निर्भर रहने वाले प्रत्याशी की तरह पहलवान मुख्य रूप से घास खाते हैं- यही कोई चार पांच किलो डेली। हाजमें के लिए सुबो-शाम दो-दो रोटियां भी खा लेते हैं। उन्होंने दूरदर्शन पर बाकायदा घास खाने का प्रदर्शन भी किया था। गर्ग संहिता में कृष्ण गोपियों को बताते हैं कि दुर्वासा ऋषि भोजन के स्थान पर दूब (एक प्रसिद्ध घास) का रस पीते हैं।

जब से असलम पहलवान को दूरदर्शन पर घास खाते देखा और तृणमूल कांग्रेस अस्तित्व में आई, हमने घास पर रिसर्च शुरु कर दी। जब मैं छोटा था और स्कूल में पढ़ाई के दौरान किसी सवाल का जवाब न दे पाने पर मुंह बा (खोल) कर खड़ा रह जाता था तो मास्टर जी कहते थे ´´चुप क्यों है, क्या अक्ल घास चरने गयी है?´´ आप कहेंगे कि भई यह तो मुहावरा है। अजी, जो मुंह से बार-बार निकले वही मुहावरा बन जाता है। पर मैं सोचता, जरूर इस मुहावरे में कोई न कोई तथ्य होगा। यानी अवश्य ही किसी जमाने में घास अक्ल के लिये टानिक रही होगी। जहां तक मेरी अक्ल काम करती है इस ´तथ्य´ पर आज तक किसी भी वैज्ञानिक ने खोज नहीं की है।

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