नई पुस्तकें >> लेख-आलेख लेख-आलेखसुधीर निगम
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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख
वैज्ञानिक प्रमाण के अभाव में घास को आज तक चौपाए ही खाए चले जा रहे हैं। अलबत्ता जिन चौपाओं के मुंह खून लग जाता है वे घास नहीं खाते। कहा भी गया है कि शेर का बच्चा भूखा मर जाऐगा पर घास नहीं खाएगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि शाकाहारी चौपाओं में अक्ल नहीं होती। दुधारू जानवर नियत समय पर दूध देते हैं। आवारा पशु दिन भर मंडी में मुंह मारकर सांझ होते घर लौट आते हैं और मालिक की घास बचाते हैं। पशु भी लोगों को तभी मारते हैं जब खतरा उपस्थित हो। आज तक नही सुना कि घास-खाऊ जानवर आतंकवादी बन गया हो। कुत्ते को जब बदहजमी हो जाती है तो वह ईनो या ईसबगोल लेने के बजाय कोई विशेष प्रकार की घास खा लेता है।
घास खाने वाले जानवरों की और घास की संगत में रहकर कई लोग महापुरुष तक बन गए। अपने लार्ड कृष्णा को ही लें, जनाब गायों को जंगल में ले जाकर घास चराया करते थे। गाएं घास चरतीं और वह वहीं घास पर बैठकर बांसुरी बजाते। घास के वर्ण से प्रभावित होकर अपना नाम तक ´हरी´ रख लिया। बड़े होने पर बड़े-बड़े कारनामें किए जो भक्ति साहित्य में दर्ज हैं। उन्हीं हरी के प्रसाद से चौरसिया जी की बांसुरी विश्व में गूंज रही है। कृतज्ञता-ज्ञापन के रूप में हरी प्रसाद जी ने अपने बंगले के सामने एक हरी-घास का बड़ा-सा लान बनवा छोड़ा है।
गांधी जी बकरी रखते थे। उसे जरा-सी घास खिलाते थे और बदले में उसका सारा दूध पी जाते थे। राष्ट्र पिता तक बन गए। ज्यादा घास खाने वाली गाय का दूध पीने वालों ने उनके राष्ट्रपितृत्व को चुनौती दे डाली। गांधी जी अगर गाय की घास का खर्च उठा पाते तो ऐसी नौबत न आती।
बंगाल के घोष बाबुओं का घास से क्या संबंध रहा यह तो इतिहास की किसी पुस्तक में दर्ज नहीं है परंतु दूध बेचने वाले घोसी लोग सीधे जानवरों और घास से जुड़े पाए जाते हैं। महाराष्ट्र में कोई घासीराम कोतवाल हो गए हैं। नौटंकी के जरिए वे आज भी लोगों की स्मृति में घास की तरह हरे हैं।
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