नई पुस्तकें >> लेख-आलेख लेख-आलेखसुधीर निगम
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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख
खोजी पाठक
उस समय नागार्जुन जी पटना में थे। पंचायत चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी की टिकट पर चुने गए मुखियों और सरपंचों का सम्मेलन हो रहा था। बाबा उसमें सम्मिलित होने के लिए गए थे। सम्मेलन में आए कुछ लोगों ने नागार्जुन को पहचान लिया। पास आकर पूछा, ´´आप नागार्जुन हैं?´´ बाबा के ´हां´ कहने पर उनमें से एक बेधड़क बोला, ´´नागार्जुन होकर ऐसी किताब लिख मारी।´´ यह कहकर उसने बाबा के सद्य प्रकाशित उपन्यास ´दुखमोचन´ की एक प्रति उनके सामने कर दी।
बाबा बोलें तो क्या बोलें! इसी ऊहापोह में थे कि वह पाठक फिर बोला, ´´आपकी लेखनी के प्रति हमारे मन में बड़ी श्रद्धा है, आपकी हर किताब हम ढूंढकर पढ़ते हैं। छपते ही यह ´दुखमोचन´ हमने खरीदी और पढ़ी। आप तो आग उगलने वाले लेखक हैं लेकिन यह किताब तो एकदम ठंडी है। हमारा श्रम, समय और धन सब बर्बाद हुआ। लीजिए अपनी यह रद्दी किताब और लौटाइए हमारा पैसा।´´
बाबा उस पाठक के आक्रोश से विचलित हो उठे और वहां से खिसकने में ही भलाई समझी। जाने लगे तो पाठक ने रास्ता रोक लिया और बोला, ´´जा कहां रहे हैं? आप को हम ऐसे ही थोड़े छोड़ देंगे। जवाब देना पड़ेगा कि आपने ऐसी रद्दी किताब क्यों लिखी?´´
तब बाबा उसे लेकर नज़दीकी चाय के ढाबे पर गए और उसे ´दुखमोचन´ लिखे जाने की पूरी पृष्ठभूमि सुनाते हुए बताया, ´´एक बार जब मैं इलाहाबाद गया तो मेरे मित्र भरत भूषण अग्रवाल ने, जो लखनऊ-इलाहाबाद रेडियो स्टेशन पर प्रोड्यूसर थे, मुझे घेर लिया और कहने लगे मैं आकाशवाणी के लिए एक उपन्यास लिखूं जिसे धारावाहिक रूप से रेडियो पर प्रसारित करने का फैसला वे कर चुके हैं।
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