लोगों की राय
धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
बैरम खां अमीरों में सबसे अधिक प्रभावषाली था। उसकी स्वामिभक्ति पर किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता था। उसमें अपने पद के अनुरूप सभी योग्यताएं विद्यमान थीं। वह उच्चकोटि का विद्वान, सभ्य, नीति-निपुण और व्यवहारकुशल व्यक्ति था। कूटनीतिज्ञता उसमें उच्चकोटि की थी और उसका प्रषासकीय अनुभव अति व्यापक था। वह अति वीर और कुशल सेनानायक था। अल्पायु के कारण अकबर के व्यक्तित्व में जो अभाव था उसकी पूर्ति उसके संरक्षक ने कर दी।
तभी सरदारों में मतभेद पैदा हो गया। कुछ लोगों की राय थी कि पहले अकबर को काबुल ले जाया जाय और वहां पर एक सुसंगठित सेना का संगठन करने के बाद अफगानों का सामना किया जाए। कुछ सरदार चाहते थे कि सीधे दिल्ली चला जाए और वहीं से दुष्मनों का सफाया किया जाए।
समाचार आया कि हुमाऊँ की मृत्यु की सूचना काबुल और बदख्शां पहुंचने के बाद अकबर के चाचा मिर्जा सुलेमान और उसके पुत्र इब्राहीम ने विद्रोह कर दिया है। सुलेमान का कहना था कि हुमाऊँ का भाई होने के नाते अल्पवयस्क अकबर की बजाय बादशाह बनने का अधिकार उसका है। उसकी आशाएं बुलबुलाने लगीं तो हुमाऊँ के उपकारों को भूलकर उसने सेना लेकर काबुल को घेर लिया। उस समय काबुल का शासक मुनीम खां था। उसने किले को ढृढ़ किया और मिर्जा सुलेमान के हरकत की सूचना अकबर को भेज दी। मिर्जा की ओर से आक्रमण होने लगे थे। इस बीच अकबर ने काबुल से शाही महिलाओं को वापस लाने के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज दी। टुकड़ी ने सिंधु नदी पार की तो मिर्जा को लगा कि सहायक सेना आ रही है। फिर तो सेना आने की अफवाह फैल गई। इससे काबुल के लोगों की भी हिम्मत बढ़ गई। मिर्जा सुलेमान को संधि करनी पड़ी। वह सेना सहित बदख्षां लौट गया। इस प्रकार काबुल मुक्त हो गया और अकबर को अप्रत्यशित रूप से एक कठिनाई से छुटकारा मिल गया। परंतु कंधार अकबर के हाथ से निकल गया। उस पर फारस के शाह ने अपना अधिकार कर लिया। कुछ दिनों बाद हमीदा बेगम, गुलबदन बेगम तथा अन्य शाही महिलाएं अकबर के पास पहुंच गईं ।
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