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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
कांटों भरा ताज
हुमाऊँ की मौत की खबर अकबर पर कहर बनकर बनकर टूटी। अकबर भी टूट गया, बिखर गया। बैरम खां व अन्य अमीरों ने उसकी दिलजोई की, सब्रो-ताव लाने की गुजारिष की। नीम जां अकबर उठकर बैठा। आंसू पोंछ डाले। रहमत के लिए दोनों हाथ बांध कर आसमान की ओर ताकने लगा। फिर सरसरी नज़र वहां खड़े लोगों पर डाली। हर सू उसे अपने मददगार और खैरख्वाह ही दिखाई दिए। लगा वे सब उसके हुक्म के मुन्तजिर हैं। उत्तरदायित्व मनुष्य को उम्र से बड़ा बना देता है।
11 फरवरी 1556 को अकबर के नाम का खुतवा पढ़ा गया। यानी उसके नाम से जुम्मे की नमाज पढ़ी गई। 13 या 14 दिन बाद (गुरदासपुर से 24 कि.मी. पष्चिम में स्थित) कालानूर में अकबर का राज्याभिषेक हुआ। यह जगह इतनी पवित्र मानी जाती थी कि लाहौर के प्राचीन राजाओं का राज्याभिषेक भी यहीं हुआ करता था। उसे सुनहरे वस्त्र व गहरे रंग की पगड़ी पहनाई गई। एक चबूतरे को सिंहासन बनाकर उस पर अकबर को बिठाया गया। उसे शहंशाह पुकारा गया। सरदारों, सेनापतियों तथा अन्य अमीरों ने शहंशाह (षाहिनशाह) के प्रति स्वामिभक्ति प्रकट की। बैरम खां खानख़ाना था, अब अकबर की कृपा से सल्तनत का वकील (प्रधानमंत्री) भी बनाया गया। सल्तनत का सारा प्रबंध, सेना का संगठन और संचालन अब बैरम के हाथ में आ गया।
उस समय अकबर के पास कोई सुदृढ़ साम्राज्य नहीं था। साधनों का अभाव था। बाबर और हुमाऊँ की दुर्नीति के कारण शाही खजाना खाली था। जो साधन थे उनका सदुपयोग करना कठिन हो गया था क्योंकि इन दिनों दिल्ली और आगरे में भयानक अकाल पड़ गया था।
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