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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
दीने इलाही : क्या ईश्वर का धर्म
यों तो ‘दीन’ का अर्थ मज़हब होता है पर अकबर द्वारा शुरू किया गया दीने इलाही कोई धर्म न था वरन् यह ऐसे लोगों की एक ‘गोष्ठी’ थी जो अकबर के विचारों तथा विश्वासों से सहमत थे और जो उसे अपना पीर मानने को तैयार थे। दूरदर्शी अकबर जानता था कि न तो सभी धर्मों का एक में विलय किया जा सकता है और न ही कोई नया धर्म चलाया जा सकता है। इस ‘गोष्ठी’ का नाम ही दीने इलाही पड़ गया।
दीने इलाही की सदस्यता अत्यंत सीमित थी। सदस्य बनाने के लिए अकबर द्वारा धन या शक्ति का प्रयोग नहीं किया गया। ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं है कि सदस्य बनने से किसी के पद में वृद्धि हुई हो या न बनने वाले की कोई हानि। वही लोग इसके सदस्य बन सकते थे जिन्हें अकबर इस योग्य समझता हो। कई बंधनों के होते हुए भी कई हजार लोग इसके सदस्य बन गए। लगभग बीस सदस्यों के नाम तो अब भी उपलब्ध हैं। बीरबल के अतिरिक्त शेष सभी सदस्य मुसलमान थे। अकबर के विश्वासपात्र भगवानदास, टोडरमल, मानसिंह आदि दीने इलाही के सदस्य नहीं थे। इससे स्पष्ट है कि सदस्य बनाने के लिए बादशाह अपने प्रभाव का प्रयोग नहीं करता था।
दीने इलाही के नए सदस्य को बादशाह द्वारा रविवार को दीक्षा दी जाती थी। सदस्य अपने हाथों में एक पगड़ी लेकर अपने सिर को बादशाह के चरणों में रख देता था। बादशाह उसे उठाकर पगड़ी पहना देता था। यह आचरण इस्लाम धर्म के नियमों के विपरीत था जिसमें मूर्ति या व्यक्ति-पूजा की मनाही है। अकबर ‘शिस्त’ शब्द का उच्चारण करता जिसे दीक्षित सदस्य दोहराता। ‘शिस्त’ का लाक्षणिक अर्थ है शिष्यता ग्रहण करना। नए सदस्य को अकबर का एक छोटा-सा चित्र दिया जाता जिसे वह अपनी पगड़ी में रखता।
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