जीवनी/आत्मकथा >> अकबर अकबरसुधीर निगम
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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
इससे धार्मिक आस्था को केवल विश्वास पर आधारित मानने वालों को बहुत तकलीफ पहुंची। अनेक अवसरों पर तो कट्टरवादी मुसलमानों ने अकबर के विरुद्ध बगावत भी की। इसके विरोध में 1580 ई. में एक बड़ा विद्रोह फूट पड़ा, जिसने अकबर को काफी खतरे में डाल दिया। विद्रोह का नेतृत्व शेखों के हाथ में था जिन्होंने फतवा जारी करके अकबर को काफिर घोषित कर दिया और उसका तख्ता उलटने का आदेश दिया। विद्रोह बंगाल और पंजाब में केंद्रित था, जहां असंतुष्ट सामंतों ने अकबर के सबसे छोटे सौतेले भाई, काबुल के सूबेदार मुहम्मद हकीम को मुगल सिंहासन का अपना उम्मीदवार बना लिया। अकबर बड़ी मुश्किल से इस विद्रोह को कुचल पाया
‘इबादतखाना’ की कार्रवाई से अकबर को बड़ी निराशा हुई। उसने सोचा था कि विभिन्न धर्मों के आचार्य पारस्परिक विचार-विमर्श करके एक दूसरे के धार्मिक सिद्धांतों को समझ सकेंगे, आपस में सहयोग तथा सद्भावना उत्पन्न करेंगे, और धर्म के वास्तविक ध्येय तथा उसके मौलिक सिद्धांतों का पता लगाएंगे परंतु ये धर्माचार्य आपस में लड़-झगड़कर पारस्परिक मतभेद तथा मनोमालित्य और सांप्रदायिकता की भावना को और बढ़ा रहे थे जिससे देश की एकता नष्ट हो रही थी। अपनी सद्भावना को निराशा की चट्टान पर चूर-चूर होते देखकर अकबर ने 1582 ई. में इबादतखाना की बैठकों को बंद कर दिया।
परंतु सर्वधर्मसमभाव की भावना से पुष्ट, अन्याय धर्म-मत के जरिए सत्य-लाभ की आकांक्षा से प्रेरित अकबर को निराश नहीं होना चाहिए था। कुछ समय तक, श्रीरामकृष्ण परमहंस की तरह, उसे अन्य संप्रदायों के निर्देश के मुताबिक साधना करनी चाहिए थी, उन संप्रदायों के लोगों के साथ रहकर उन लोगों के भावादर्शों में तन्मय रहता। कुछ वर्षों बाद अन्य संप्रदाय में चला जाता। इस प्रकार सभी साधनाओं के वह अवश्य इस नतीजे पर पहुंचता कि सभी धर्म-मत अच्छे हैं। परमहंस की तरह वह भी कह उठता, ‘विभिन्न धर्म एक ही सत्य पर पहुंचने के पथ मात्र हैं।’ वह समझ जाता कि इतने सारे पथ होना परम गौरव की बात है क्योंकि ईश्वर को पाने का सिर्फ एक पथ होता तो वह किसी एक व्यक्ति के लिए उपयोगी होता। लेकिन उसका उत्साह क्षीण नहीं हुआ। वह लगा रहा। यद्दपि मार्ग भिन्न था।
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