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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
अकबर ने बहुसांस्कृतिक सहिष्णुता के पक्ष में जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही वह संभवतः तर्कशीलता की भूमिका से संबंधित थी। तर्क (कारण) ही सर्वोपरि होना चाहिए क्योंकि इस विचार का खंडन के लिए तर्क का ही सहारा लेना पड़ेगा। यहां यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि अकबर की दृष्टि में कोई एक धर्म सर्वविधि पूर्ण नहीं है। गांधी जी की विशेषता यह थी कि वे किसी भी धर्म को छोटा नहीं कहते थे। कबीर दोनों से भिन्न थे। उन्होंने यह नहीं कहा कि हिंदुत्व और इस्लाम दोनों अच्छे धर्म हैं, अतएव हिंदुओं और मुसलमानों को मिलकर रहना चाहिए। उल्टे उन्होंने इस बात की खुली घोषणा की कि हिंदुत्व और इस्लाम दोनों अधूरे धर्म हैं। असली धर्म वह है जिस पर रहस्यवादी आरूढ़ होता है। अतएव उचित है कि हिंदू और मुसलमान इस सूक्ष्म आत्मधर्म के धरातल तक पैठने की कोशिश करें जहां पहुंचने पर मंदिर और मस्ज़िद बेकार हो जाते हैं। बहरहाल अकबर पहले सभी धर्मों के मर्म को आत्मसात कर लेना चाहता था।
अकबर ने न केवल सहिष्णुता की प्राथमिकता का आग्रह किया बल्कि साथ ही उसने एक धर्म निरपेक्ष कानून व्यवस्था और राज्य की धार्मिक निष्पक्षता की नींव रखी। उसका आग्रह था कि राज्य किसी व्यक्ति के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करे और प्रत्येक व्यक्ति उस धर्म का अनुसरण करने को स्वतंत्र हो जो उसे पसंद हो। एक प्रकार से अकबर राज्य की पंथनिरपेक्षता के उस विचार को विधिवत् व्यावहारिक रूप प्रदान कर रहा था जिसे कहीं व्यापक और सामान्य रूप में अकबर से भी दो हजार वर्ष पूर्व सम्राट अशोक ने प्रतिपादित किया था।
इस्लामी परंपरा पर ही आग्रह करने वालों के प्रहारों का उत्तर देते हुए अकबर ने अपने सहयोगी मित्र और उस समय के संस्कृत, अरबी, फारसी के प्रकांड विद्वान और जीवनीकार अबुल फजल से कहा था, ‘‘परंपरा को नकार कर केवल तर्क का अनुसरण करना इतना स्वयंसिद्ध है कि इस विषय में किसी बहस की जरूरत ही नहीं है। यदि परंपराएं ही उचित होतीं तो पैगंबर नए संदेश नहीं लाते, वे अपने बुर्जुगों का ही अध्ययन करते रहते।’’
विभिन्न धर्मों की गोष्ठी में सभापति का काम अकबर स्वयं करता था और स्वभावतः परस्पर झगड़ने वाले विद्वानों को अकबर की श्रेष्ठता स्वीकार करनी पड़ती थी। इस प्रकार वह धीरे-धीरे देश का धार्मिक नेता भी बनने लगा। 1579 ई. में अकबर ने खुद साम्राज्य के प्रमुख इमाम की हैसियत से मस्जिद के मिम्बर से खुतबा पढ़ा। तभी राज्य के प्रमुख उलेमाओं के हस्ताक्षरों से घोषणा की गई कि इमामे आदिल (न्यायी इमाम) सब मुजताहिदों (मजहब के व्याख्याकारों) से बड़ा है और विवादग्रस्त मामलों में उसका फैसला मान्य होगा। न मानने वाला दंड का भागी होगा।
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