जीवनी/आत्मकथा >> अकबर अकबरसुधीर निगम
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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
इबादतखाना चार भागों में विभक्त था। पश्चिम की ओर सैयद, दक्षिण की ओर उलेमा, उत्तर की ओर शेख और पूर्व की ओर अकबर के वे अमीर बैठते थे जो अपनी विद्वता के लिए, अलौकिक प्रतिभा के लिए व वाणी के वरणीय वरदान के लिए प्रसिद्ध थे। दो वर्ष तक इबादतखाना में केवल इस्लाम धर्म के आचार्य एकत्र होते रहे। इन आचार्यों की बैठक प्रति बृहस्पतिवार को रात्रि के समय होती थी और उसमें अकबर उनके धार्मिक प्रवचनों तथा व्याख्यानों को सुना करता था। यहां उसकी अध्यक्षता में दार्शनिक और धर्म शास्त्रीय धाराओं के मुसलमान विद्वान स्वच्छंदता से अनेक समस्याओं पर विचार कर सकते थे। अकबर का कहना था कि दर्शनशास्त्र की चर्चा उसे इतना आकर्षित करती है कि बाकी सब चीजों से उसका ध्यान हट जाता है। वह कभी-कभी पूरी रात ईश्वर के ध्यान में बिता देता था। उन दिनों अकबर का झुकाव रूढ़िमुक्त और विवेकशील चिंतन और विशेषकर सर्वात्मवादी विचारों से भरपूर सूफी संप्रदायों की ओर अधिक था। परंतु अकबर की स्पष्ट घोषणा के बाद भी कि इबादतखाना की स्थापना उसने सत्य की खोज, सच्चे धर्म के सिद्धांतों के अन्वेषण और उसकी दैवी उत्पत्ति का पता लगाने के लिए की है इस्लाम धर्म के आचार्य अपनी विचार-संकीर्णता को न छोड़ सके। उनके वाद-विवाद में संयम तथा मर्यादा का बड़ा अभाव रहता, और वे लोग आपस में लड़ जाया करते। इसका नतीज़ा यह रहा कि गंभीर लोगों ने इसमें भाग लेना बंद कर दिया। इससे अकबर बड़ा निराश हुआ। पर उसकी जिज्ञासाएं बुझी नहीं।
1578 ई. में इबादतखाना का द्वार हिंदू, जैन, ईसाई, पारसी, मुस्लिम, (इस्लाम की तीनों प्रमुख धाराओं शिया, सुन्नी और सूफी सहित) यहूदी यहां तक कि (चार्वाक पंथ के) नास्तिकों आदि सभी धर्मों के आचार्यों के लिए खोल दिया गया। अकबर किसी भी पंथ या धर्म के ‘सब कुछ स्वीकार या अस्वीकार’ वाले दृष्टिकोण को नहीं अपनाता था। वह तो प्रत्येक बहुमुखी धर्म चिंतन के सभी अंगों पर विचार-विमर्श चाहता था। जैसे जैनियों से तर्क करते हुए उसने उनके अनेक कर्मकांडों की आलोचना की किंतु शाकाहार विषय पर उनके तर्कों को स्वीकार कर वह हर प्रकार के मांसाहार का विरोधी हो गया। सम्राट अशोक द्वारा जनसंवाद को प्रोत्साहन दिए जाने की प्रतिध्वनि अकबर द्वारा विभिन्न धर्मानुयायिओं के बीच संवाद के आयोजन और प्रश्रय में सुनाई दी। अकबर का आग्रह था कि सामाजिक सद्भाव की समस्याओं का समाधान ‘पंरपरा के अनुकरण’ द्वारा नहीं बल्कि ‘तर्क के अनुकरण’ द्वारा संभव हो सकता है। इस समाधान की खोज के लिए तर्कशील संवाद का ही बोलबाला होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, अकबर का मानना था कि परंपरा पर भरोसा करने के स्थान पर तर्क बुद्धि का सहारा लेकर जटिल सामाजिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। अकबर का विचार आज के विश्व में और भी महत्वपूर्ण हो गया है।
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